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________________ खाकर वमन करता है, किन्तु कुछ समय के लिए उसके मुँह में खीर का आस्वादन अवश्य रहता है, इसी प्रकार इस गुणस्थान में भी जीव को सम्यक्त्व का स्वाद रहता है। आत्मा प्रथम गुणस्थान से सीधे दूसरा गुणस्थान प्राप्त नहीं करती है, किन्तु ऊपर के गुणस्थानों से पतित होने वाली आत्मा ही इसकी अधिकारिणी बनती है। अतः यह गुणस्थानक आरोहण (उपर चढने के) क्रम से नहीं बल्कि अवरोहण (नीचे उतरने के) क्रम से प्राप्त होता है। इसका काल जघन्यतः एक समय तथा उत्कृष्ट 6 आवलिका बताया गया है। उक्त काल पूर्ण होते ही जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। : 3. मिश्रगुणस्थान जिसकी दृष्टि मिथ्या और सम्यक् दोनों परिणामों से मिश्रित है वह मिश्र या सम्यक् मिथ्यादृष्टि कहलाता है। इस गुणस्थान में जीव को सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिला जुला रूप रहता है, जिस प्रकार दही और मिश्री के मिश्रण से निर्मित: हुए श्रीखंड का स्वाद न केवल दही रूप होता है, न मिश्री रूप, किन्तु उसका स्वाद कुछ खट्टा-कुछ मीठा अर्थात् मिश्रित रूप हो जाता है उसी प्रकार आत्मा के गुणों को घात करनेवाले मिश्र मोहनीय कर्म के उदय से जीव को एकान्त सम्यक्त्व की शुद्धता या एकान्त मिथ्यात्व की मलिनता का अनुभव नहीं होता परन्तु दोनों के मिले जुले मिश्रभाव का अनुभव होता है। इसमें जीव को जिनवाणी पर न श्रद्धा होती है, न अश्रद्धा। आत्मा सत्य और असत्य के बीच झूलती रहती है। मिश्र गुणस्थान में जीव को न परभव की आयु का बंध होता है न उसका मरण होता है। वह सम्यक्त्व या मिथ्यात्व दोनों में से किसी एक परिणाम को प्राप्त करके ही मरता है। यह गुणस्थान जीव चढते समय या उपर के गुणस्थानों से गिरते समय दोनों स्थितियों में प्राप्त कर सकता है, किन्तु यहाँ ध्यान रखने योग्य है कि प्रथम गुणस्थान से तृतीय गुणस्थान पर वे ही आत्माएँ जा सकती है जिन्होंने कभी चतुर्थ गुणस्थान का स्पर्श किया हो। कहने का आशय यह है कि चतुर्थ गुणस्थान में यथार्थ का बोध कर पुनः प्रथम गुणस्थान में आई हुई है वे आत्माएँ ही मिश्र मोहनीय कर्म का उदय होने पर तृतीय गुणस्थान को प्राप्त कर सकती है, लेकिन जिन आत्माओं ने कभी सम्यक्त्व का स्पर्श ही नहीं किया हो, वे अपने विकास में प्रथम गुणस्थान से चतुर्थ में ही आती है, क्योंकि संशय उसे ही हो सकता है, जिसने एक बार यथार्थ का बोध किया हो । इस गुणस्थान की काल स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है। 4. अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान :- जिसे सम्यग्दृष्टि प्राप्त हो जाती है, किन्तु अप्रत्याख्यानीय कषाय का उदय होने पर किसी प्रकार का व्रत नियम ग्रहण नहीं कर सकता उस व्यक्ति के गुणस्थान को अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहते हैं। इस अवस्था में दर्शन और ज्ञान शुद्ध रहता है परन्तु चारित्र या व्रत का ग्रहण नहीं हो सकता । व्यक्ति हिंसा, झूठ, अब्रह्मचर्य आदि को $65
SR No.004055
Book TitleJain Dharm Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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