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2. धर्म में अधर्म की बुद्धि रखना। 3. उन्मार्ग में सन्मार्ग की बुद्धि रखना। 4. सन्मार्ग में उन्मार्ग की बुद्धि रखना। 5. अजीव को जीव मानना। 6. जीव को अजीव मानना। 7. असाधु को साधु मानना। 8. साधु को असाधु मानना। 9. मुक्त को अमुक्त मानना। 10. अमुक्त को मुक्त मानना। इस प्रकार मिथ्यात्व के भिन्न-भिन्न अपेक्षा से विविध भेद शास्त्रों में बताये गये हैं।
जितने जीव मोक्ष जाते हैं, अव्यवहार राशि (जिन जीवों ने एक बार भी निगोद (सूक्ष्म वनस्पति व साधारण वनस्पति) अवस्था छोड़कर दूसरी जगह जन्म नहीं लिया हो) से उतने ही जीव व्यवहार राशि (जिन्होंने निगोद को छोड़कर दूसरी जगह एक बार भी जन्म ग्रहण कर लिया है) में आते है। जब अर्धपुद्गल परावर्तन काल संसार परिभ्रमण शेष रहता है, तब से वह मिथ्यादृष्टि भव्य जीव शुक्लपाक्षिक कहलाता है। इसको हम एक व्यवहारिक दृष्टान्त से इस प्रकार समझ सकते हैं। जैसे किसी को एक करोड़ रूपया उधार देना था, उसने उसमें से निन्यानवें लाख निन्यानवें हजार, नौ सौ साढे निन्यानवें रूपये (99,99,999.50) तो चुका दिये, केवल आधा रूपया देना शेष रहा। उसी प्रकार इस जीव का अर्द्ध पुद्गल परावर्तन संसार परिभ्रमण शेष रहा। अर्थात् शुक्लपाक्षिक हो गया। यहाँ से अनादि मिथ्यादृष्टि पहली बार सीधा चतुर्थ गुणस्थान में ही जायेगा।
2. सास्वादन-सम्यग्दृष्टि गुणस्थान :जिसकी दृष्टि सम्यक्त्व के किंचित् स्वाद सहित होती है उस व्यक्ति के गुणस्थान को सास्वादन-सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहते है।
सम्यग्दृष्टि जीव औपशमिक सम्यक्त्व से पतित होकर जब तक पहले गुणस्थान में नहीं पहुँच पाता जब तक उसकी आत्मा में आंशिक रूप से सम्यक्त्व का आस्वाद रहता है, उस अवस्था को सास्वादन गुणस्थान कहते हैं। जैसे कोई व्यक्ति खीर
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