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होने पर जीव उस गुणस्थानक के अंतिम चरण में ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया करता है और उनमें सफल होने पर विकास के अगले चरण सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त करता है।
ग्रन्थिभेद का विवेचन गुणस्थानक के बाद किया गया है। मिथ्यात्व के भेद :
काल की अपेक्षा से मिथ्यात्व के तीन भेद हैं
1. अनादि-अनंत मिथ्यात्व :- जिन जीवों में अनादिकाल से मिथ्यात्व है तथा अनंतकाल तक रहेगा, ऐसे अभव्य तथा जातिभव्य जीवों का मिथ्यात्व अनादि-अनंत है।
2. अनादि-सांत मिथ्यात्व :- जिन जीवों में मिथ्यात्व का उदय अनादिकाल से है परंतु जिसका नाश अवश्यमेव होगा, ऐसे भव्य जीवों का मिथ्यात्व अनादि-सांत है।
3. सादि-सांत मिथ्यात्व :- जो जीव मिथ्यात्व का उदय-विच्छेद करके उपर के गुणस्थानों में चढकर सम्यक्त्व को प्राप्त कर पुन: मिथ्यात्व में आता है, तब उस जीव के मिथ्यात्व का प्रारंभ होने से सादि, और ऐसा सम्यक्त्व पतित जीव मिथ्यात्वदशा में अधिकतम देशोन (कुछ कम) अर्धपुदगल परावर्त काल रहने के पश्चात् निश्चित ही मोक्ष में जानेवाला होने से मिथ्यात्व का विच्छेद करके सम्यक्त्व का उपार्जन करता है। इसलिए यह सादि-सांत मिथ्यात्व कहलाता है। मिथ्यात्व के पाँच भेद :
1. आभिग्रहिक मिथ्यात्व :- मेरी मान्यता ही सत्य है, अर्थात् जो मैंने माना है, वही सत्य है, ऐसा मानना आभिग्रहिक मिथ्यात्व है।
2. अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व :- सभी धर्म समान है, सभी धर्म सत्य है, ऐसा मानना अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व है।
3. सांशयिक मिथ्यात्व :- वीतराग परमात्मा की वाणी में शंका-संदेह-संशय करना सांशयिक मिथ्यात्व है।
4. आभिनिवेशिक मिथ्यात्व :- अपने सिद्धांत/मत को गलत जानते हुए भी दृढ अभिमान और आग्रहपूर्वक उसे पकड़े रखना आभिनिवेशिक मिथ्यात्व है।
____5. अनाभोगिक मिथ्यात्व :- वस्तु तत्व को जानना ही नहीं, अर्थात् विशेष ज्ञान का अभाव, अज्ञानी बने रहना, अनाभोगिक मिथ्यात्व है।
स्थानांग सूत्र में मिथ्यात्व के दस प्रकार बताये गये हैं :1. अधर्म में धर्म की बुद्धि रखना।
ISRAKSHAR
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