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अतिरिक्त उसको अधिक गृहकृत्य करना नहीं कल्पता है। इसकी अवधि दस मास की है।
11. श्रमण भूत प्रतिमा :- इस प्रतिमा में श्रावक की अपनी समस्त चर्या साधु के समान होती है। वह मस्तक के बालों का मुण्डन करवा लेता है या लोच करता है। वह साधु का आचार रजोहरण, पात्रादिग्रहण कर साधु के वेष में साधु की तरह विचरता है। वह अपने कुटुंबीजनों या परिचित घरों में भिक्षावृत्ति के लिए जाता है। वहाँ प्रतिमाप्रतिपन्नाय श्रमणोपासकाय भिक्षां दत्त'' अर्थात् प्रतिमाधारी श्रमणोपासक को भिक्षा दो, इस प्रकार बोल कर आहार ग्रहण करता है। आहारदाता को ‘धर्मलाभ' नहीं देता है। यदि उसे कोई मुनि समझकर वंदन करता है, तो वह यह कह देता है कि मैं तो प्रतिमाधारी
श्रमणोपासक हूँ और आपसे क्षमा चाहता हूँ। इस प्रतिमा की अवधि ग्यारह मास की है।
गृहस्थ उपासक साधु से इस अर्थ में भिन्न होता है कि 1. पूर्वराग के कारण कुटुम्ब के लोगों या परिचितजनों के यहाँ ही भिक्षार्थ जाता है। 2. केश लुंचन के स्थान पर मुण्डन करवा सकता है।
3. साधु के समान विभिन्न ग्राम एवं नगरों के कल्पानुसार विहार नहीं करता है। अपने निवास नगर में ही रह सकता है।
पाँचवी प्रतिमा से लेकर 11वीं प्रतिमा तक की जघन्य काल अवधि एक, दो, तीन दिन की कही गई है। उत्कृष्ट प्रतिमा धारी श्रावक वर्धमान परिणाम के कारण दीक्षित हो जाय या आयु पूर्ण कर ले तो जघन्य या मध्यम काल की उसकी अवधि समझनी चाहिए। यदि दोनों में से कुछ भी न हो तो प्रतिमा का काल उत्कृष्ट समझना चाहिए | सब प्रतिमाओं का समय कुल मिलाकर साढे पाँच वर्ष (66 महीने) होता है।
इस प्रकार हम देखते है कि श्रावक-साधना की उपरोक्त भूमिकाओं और कक्षाओं की व्यवस्था इस प्रकार से की गई है कि जो साधक-वासनात्मक-जीवन से एकदम ऊपर उठने का सामर्थ्य नहीं रखता, वह निवृत्ति की दिशा में क्रमिक-प्रगति करते हुए अन्त में पूर्ण निवृत्ति के आदर्श को प्राप्त कर सकता है। आज इन प्रतिमाओं का आंशिक अनुसरण ही देखा जाता है।