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प्रयोग किया जाता है। इस नय के अनुसार प्रत्येक शब्द के अर्थ भिन्न-भिन्न हैं। __ शब्द नय तो अर्थ भेद वही मानता है, जहाँ लिंग आदि का भेद है, परन्तु समभिरूढ नय की दृष्टि से प्रत्येक शब्द का अर्थ अलग-अलग ही होता है भले ही वे शब्द पर्यायवाची हों! और उनमें लिंगादि भेद भी न हो। जैसे इन्द्र, पुरन्दर, शकेन्द्र आदि शब्द पर्यायवाची है अतः शब्द नय की दृष्टि से इनका एक ही अर्थ है, परन्तु समभिरूढ नय के मन में इनके अलग अलग अर्थ है। इन्द्र शब्द से ऐश्वर्यशाली का बोध होता है, पुरन्दर नगर का विनाशक तथा
शक्रेन्द्र से शक्ति सम्पन्न का बोध होता है। 7. एवंभूत नय :- पदार्थ जिस समय अपनी अर्थ क्रिया में प्रवृत्त हो उसी समय उसे शब्द का वाच्य मानना चाहिए - ऐसी निश्चय दृष्टिवाला नय एवंभूत नय है। जिस शब्द का जो व्युत्पत्ति अर्थ होता है, उसके होने पर ही उस शब्द का प्रयोग करना एवंभूत नय है। इन्द्रासन पर जिस समय शोभित हो रहा हो उस समय उसे इन्द्र कहना चाहिए। जिस समय वह शक्ति का प्रयोग कर रहा हो उस समय उसे इन्द्र नहीं कहना चाहिए उस समय उसे शक्र कहना चाहिए। जिस समय वह नगर का ध्वंस कर रहा हो उस समय उसे पुरंदर कहना चाहिए। इसी प्रकार तीर्थंकर शब्द का प्रयोग उसी समय करना चाहिए जब वे तीर्थ की स्थापना कर रहे हों, अन्य समय नहीं।
सत्य अनन्त पहलुओं वाला है। उसे किसी एक पहलू से नहीं समझा जा सकता। एकांगी दृष्टि वस्तु को सही रूप में देखने में असमर्थ है। इसलिए जैन दर्शन ने नयों का विवेचन किया है। इस नयवाद को ठीक ढंग से समझ लेने पर समस्त विवादों का समाधान हो जाता है। नयवाद की यही उपयोगिता है।
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इन्द्र अपने एश्वयं । आदि गुणों के साथ
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