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1. प्रत्यक्ष प्रमाण- प्रत्यक्ष शब्द प्रति उपसर्ग पूर्वक अक्ष' धातु से बना है। अक्ष का अर्थ 'जीव' और इन्द्रिय दोनों होता है पर जैन परम्परा में यहाँ अक्ष' शब्द आत्मा को माना है अर्थात् आत्मा से होनेवाला ज्ञान प्रत्यक्ष है। अन्य दर्शनों ने साधारण तौर पर इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष माना है। परन्तु जैन दर्शन ने इसे परोक्ष माना है। इस विरोध को दूर करने के लिए और अन्य दर्शनों के साथ समन्वय करने की दृष्टि से जैन दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष की परिभाषा में कुछ परिवर्तन किया और कहा - 'विशदःप्रत्यक्षम्, अविशदम् परोक्षम् अर्थात् विशद (स्पष्ट) ज्ञान प्रत्यक्ष है और अविशद् (अस्पष्ट) ज्ञान को परोक्ष कहा है। प्रत्यक्ष के उन्होंने दो भेद कर दिये है - 1. पारमार्थिक प्रत्यक्ष और 2. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष।
1. पारमार्थिक प्रत्यक्ष - जिस ज्ञान में इन्द्रिय, मन या किसी अन्य प्रमाणों के सहायता की अपेक्षा नहीं होती तथा जो सीधा आत्मा से होता है, उसे पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं। इसके दो भेद
है
a) सकल या पूर्ण - केवलज्ञान b) विकल या अपूर्ण - अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान
2. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष - इन्द्रिय और मन से होनेवाला ज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है या जिसके द्वारा हम सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति और निवृत्ति रूप व्यवहार करते हैं, वह संव्यवहार है। इसके चार भेद बताये गये हैं। a) अवग्रह, b) ईहा, c) अपाय और d) धारणा।
सांव्यवहारिक और पारमार्थिक प्रत्यक्ष का विस्तृत विवेचन मति, श्रुतादि पाँच ज्ञानों के वर्णन में किया गया है। (पृ 19 से 31 तक) 2. परोक्ष प्रमाण - जो ज्ञान यथार्थ होते हुए भी अविशद या अस्पष्ट है अर्थात् जिस ज्ञान में दूसरे प्रमाणों की अपेक्षा रहती है वह परोक्ष प्रमाण है।
परोक्ष प्रमाण के मुख्य पाँच भेद हैं - 1. स्मृति (स्मरण), 2. प्रत्यभिज्ञान, 3. तर्क, 4. अनुमान और आगम।
1. स्मृति - स्मरण - किसी ज्ञान या अनुभव के संस्कार के जागरण होने पर तत् अर्थात् वह इस आकार वाला जो ज्ञान होता है वह स्मृति है। यह अतीतकालीन पदार्थ को विषय करता है। इसमें 'तत्' वह शब्द का उल्लेख अवश्य होता है। जैसे वह मनुष्य है, वह राजगृही है आदि। 2. प्रत्यभिज्ञान - प्रत्यक्ष और स्मरण की सहायता से जो जोड रूप ज्ञान होता है उसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। वर्तमान में किसी पदार्थ को देख अथवा जानकर “यह वही है जो पहले देखा जाना था' इस प्रकार जोड रूप ज्ञान