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प्रमाण
जैन दर्शन के अनुसार तत्त्व या पदार्थ का ज्ञान प्रमाण और नय के द्वारा होता है जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है -
"प्रमाण नयैरधिगम" प्रमाण और नय के द्वारा तत्त्वों का अधिगम (ज्ञान) होता है, अर्थात् तत्त्वों का अधिगम करने के लिए प्रमाण और नय उपाय भूत है।
प्रमाण शब्द प्र उपसर्ग पूर्वक मा धातु में 'ल्युट' प्रत्यय जुड़कर बना है, जिसका अर्थ हुआ प्रकृष्ट रूप अर्थात् संशय, विपर्यय से रहित भाव से पदार्थ का जो मान (ज्ञान) किया जाता है, वह प्रमाण है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने अपने ग्रंथ न्यायावतार में प्रमाण को परिभाषित करते हुए कहा है - "प्रमाणं स्वपरावभासि ज्ञानं बाधाविवर्जितमन"। "स्व" अर्थात अपने और 'पर' अर्थात् अन्य पदार्थ को जानने वाला तथा बाधा से रहित, निर्दोष ज्ञान प्रमाण है।
प्रमाण में पदार्थ का सम्यक् निर्णय या निश्चय होता है। इसलिए प्रमाण को सम्यक् ज्ञान भी कहा जाता है। मिथ्या ज्ञान कभी भी प्रमाण नहीं होता। प्रमाण का क्षेत्र नय से व्यापक होता है। नय वस्तु के अनेक गुणों में एक गुण द्वारा वस्तु का बोध कराता है, जबकि प्रमाण वस्तु के अनेक गुणों द्वारा वस्तु का बोध कराता है। नय वस्तु को एक दृष्टि से ग्रहण करता है और प्रमाण अनेक दृष्टियों से। दूसरों शब्दों में नय प्रमाण का एक अंश मात्र है और प्रमाण अनेक नयों का समूह है। प्रमाण के भेद प्रमाण के मुख्य दो भेद है - 1. प्रत्यक्ष और 2. परोक्ष।
यद्यपि प्रमाण के चार भेद भी प्ररूपित है - 1. प्रत्यक्ष, 2. परोक्ष, 3. अनुमान और 4. आगम। किन्तु इन चारों का समावेश उपरोक्त दो भेदों में हो जाता है।
प्रमाण और प्रमाण के भेदों को निम्न चार्ट के माध्यम से अच्छी तरह समझा जा सकता है
प्रमाण
प्रत्यक्ष
परोक्ष
पारमार्थिक प्रत्यक्ष
सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष
सकल
विकल प्रत्यक्ष
स्मृति
प्रत्याभिज्ञा तर्क
अनुमान
आगम
केवलज्ञान
अवधि
मन:पर्यव
अवग्रह
ईहा
अपाय
धारणा
व्यंजनावग्रह
अर्थावग्रह
Boldication
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