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________________ 1. बहु - दो या दो से अधिक पदार्थ का ज्ञान। 2. अल्प - एक वस्तु को ग्रहण करने वाला ज्ञान। 3. बहुविध - अनेक जातियों का अवग्रहादि । जैसे हापुस, लगडा, केसरी आम। 4. एकविध - एक जाति का अवग्रहादि । जैसे एक जाति का आम, लंगडा बहु - अल्प का तात्पर्य वस्तु की संख्या से है और बहुविध, एक विध का तात्पर्य प्रकार या जाति से है। 5. क्षिप्र-क्षयोपशम की निर्मलता से शब्दादि का शीघ्र ग्रहण करना। 6. अक्षिप्र - शब्द आदि को विलम्ब अथवा देरी से ग्रहण करना। 7. अनिश्रित - वस्तु को बिना चिन्हों के ही जानने की क्षमता रखना। 8. निश्रित - किसी पदार्थ को उसके चिन्हों से जानना। 9. असंदिग्ध - पदार्थ का संशय रहित ज्ञान। 10. संदिग्ध - वस्तु को जानने में संशय रह जाना। असंदिग्ध और संदिग्ध को अनिश्चित और निश्चित भी कहा जाता है। 11. ध्रुव - जो मतिज्ञान एक बार ग्रहण किये हुए अर्थ को सदा के लिए स्मृति में धारण किये रहे। 12. अध्रुव - जो ज्ञान सदा काल स्मरण न रहे, विस्मृत हो जाए। इस प्रकार श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के 336 होते है। अश्रुत निश्रित मतिज्ञान के चार भेद हैं __1. औत्पत्तिकी बुद्धि - जिस बुद्धि के द्वारा पूर्व में जिसे कभी देखा नहीं, जिसके विषय में कभी सुना नहीं, उस विषय को स्वाभाविक सूझ के रूप में ग्रहण करने में निपुण बुद्धि, औत्पत्ति की Abhaykumar बुद्धि है। 2. वैनयिकी बुद्धि - विनय से उत्पन्न बुद्धि अर्थात गुरूजनों आदि की सेवा से प्राप्त बुद्धि वैनयिकी बुद्धि है। Pen2
SR No.004055
Book TitleJain Dharm Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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