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सम्यक्त्व प्रकट होता है वह औपशमिक सम्यक्त्व है। जैसे एक गिलास में मिट्टी मिला जल भरा है। फिटकडी आदि डालने से मिट्टी नीचे जम जाती है और जल निर्मल दिखाई देने लगता है वही दशा औपशमिक सम्यक्त्व की है।
5. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व - उदय में आये हुए कर्मदलिकों को क्षय कर देना और उदय में न आये हुए कर्मदलिकों को उपशांत कर देने पर जो सम्यक्त्व प्रकट होता है वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है।
उपशम सम्यक्त्व में उदय सर्वथा रूक जाता है । न विपाकोदय होता है न प्रदेशोदय । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में मिथ्यात्व एवं मिश्र मोहनीय का विपाकोदय नहीं होता है किन्तु प्रदेशोदय रहता है । सम्यक्त्व मोहनीय का विपाकोदय होता है।
6. क्षायिक सम्यक्त्व मिथ्यात्व मोहनीय आदि सात प्रकृतियों का क्षय होने से जो सम्यक्त्व होता वह क्षायिक सम्यक्त्व है। यह आने के बाद जाता नहीं है। क्षायिक समकित वाला जीव उत्कृष्ट 4 या 5 भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
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7. वेदक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से आगे बढने पर और क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करने से पूर्व अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माय, लोभ तथा मिथ्यात्व एवं मिश्र मोहनीय का क्षय होने पर समकित मोहनीय के अंतिम पुद्गलों का अनुभव करते समय जो सम्यक्त्व प्राप्त होता है वह वेदक सम्यक्त्व है।
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उत्तराध्ययन सूत्र में सम्यग्दर्शन के, उसकी उत्पत्ति के आधार पर दस भेद किये गये हैं, जो निम्नलिखित है -
1. निसर्ग रूचि - जो किसी के उपदेश के बिना स्वयं ही अपनी आत्मा से हुए यथार्थ ज्ञान से जीवादि तत्वों को जानता है उसे निसर्ग रूचि सम्यक्त्व कहते हैं।
2. उपदेश रूचि - तीर्थंकर, केवली, गणधर, गुरू आदि से उपदेश प्राप्त कर जीवादि तत्वों पर जो श्रद्धा प्राप्त करता है, उसे उपदेश रूचि सम्यक्त्व कहते है ।
3. आज्ञा रूचि - जिनेश्वर भगवान की आज्ञा की आराधना से होने वाली तत्व रूचि को आज्ञा रूचि सम्यक्त्व कहते है।
4. सूत्र रूचि - अंगप्रविष्ट तथा अंगबाह्य श्रुत, शास्त्रों के तन्मयता पूर्वक अध्ययन से जीवादि तत्वों के श्रद्धान रूप होने वाली रूचि सूत्र रूचि सम्यक्त्व है।
5. बीज रूचि - जिस प्रकार जल में तेल की बूंद फैल जाती है, उसी प्रकार जो सम्यक्त्व एक पद (तत्वबोध) से अनेक पदों में फैल जाता है, वह बीज रूप सम्यक्त्व है।
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