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उन्होंने क्रमश: चौदह पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया और श्रुतधर की परम्परा में दूसरे श्रुतकेवली बने ।
शय्यंभव की गर्भवती पत्नी की कुक्षि से जन्मा हुआ बालक मनक आठ वर्ष का हो गया, तब साथियों के उपहास के कारण उसको अपने पिता से मिलने की तीव्र इच्छा जागृत हुई । मनक ने अपनी माता से पिता सम्बन्धी जानकारी माँगी, तो माता ने उसके विद्वान पिता शय्यंभव जैन मुनि बने तब तक का सारा वृतांत कह सुनाया । मनक को पिता मुनि के दर्शन करने की इच्छा हुई और वह उन्हें ढूंढने के लिए निकल पडा । किसी एक गाँव में शय्यंभवसूरि खुद बाहर जाते हुए मिल गये, उनसे उसने पूछा मेरे पिता शय्यंभव मुनि कहाँ है, इसकी आपको खबर है? तब स्वयं शय्यंभवसूरि ने कहा- तुझे क्या काम है ? मनक ने अपना सारा किस्सा कह सुनाया और अपने आने का प्रयोजन बताया। तब गुरू महाराज ने रूपान्तर से अपनी पहिचान कराकर उसे प्रतिबोध दिया। इससे उसने दीक्षा की याचना की। सूरीश्वर ने फरमाया- यदि पिता पुत्र का सम्बन्ध साधुओं को न बतावे तो तुझे दीक्षा दी जा सकती है। उसने स्वीकार कर लिया और अपने पिता मुनि के पास दीक्षा ग्रहण की। आचार्य शय्यंभवसूरि ने देखा कि मनक की आयु तो मात्र छः मास जितनी अल्प है, सर्व शास्त्रों का अध्ययन उसके लिए संभव नहीं है, तब आगमों से सार संग्रह निकालकर दशवैकालिक सूत्र संकलन करके उसे उनका अभ्यास करवाया।
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5. आचार्य यशोभद्र - यशोभद्र जैन शासन के परम यशस्वी आचार्य थे। तीर्थंकर महावीर स्वामी के वे पंचम पट्टधर थे। श्रुत केवली परम्परा में उनका क्रम तृतीय था। उनके गुरू आचार्य शय्यंभवसूरि थे।
6. आचार्य सम्भूतविजय संयम श्रुतनिधि आचार्य सम्भूतविजय, भगवान महावीर स्वामी के षष्ट पट्टधर थे। आचार्य सम्भूतविजय
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जन्म ब्राह्मण परिवार में होने के
कारण उस धर्म और
दर्शन के संस्कार उन्हें बाल्यकाल से ही प्राप्त
थे। आचार्य यशोभद्र से उपदेशामृत का पानकर वे जैन संस्कारों में ढले ।
उत्कृष्ट वैराग्य के साथ 42 वर्ष की अवस्था में उन्होंने दीक्षा ग्रहण की। 40 वर्ष साधु पद पर और 8 वर्ष युगप्रधान पद में विचरे - कुल 90 वर्ष की आयु पूर्णकर वीर निर्वाण से 156 वर्ष बाद स्वर्ग पधारें।
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