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7. आचार्य भद्रबाहुस्वामी अंतिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी, भगवान महावीर स्वामी के सातवें पट्टधर थे। आचार्य यशोभद्र के यह शिष्य चौदह पूर्वों के ज्ञाता थे। 45 वर्ष की आयु में संयम प्राप्त किया और आचार्य संभूतविजयजी के बाद आचार्य पद से अलंकृत हुए। 19 वर्ष तक जिनशासन के युग प्रधानपद को उन्होंने सम्भाला और शोभित किया। अपने भाई वराहमिहिर के अधुरे ज्योतिषज्ञान का प्रतिकार किया। राजपुत्र का सात दिन में बिल्ली की अर्गला से मृत्यु होगी आदि सत्य भविष्य बताकर जिनशासन की प्रभावना की । वराहमिहिर कृत उपसर्ग को शांत करने के लिए उवसग्गहरं स्तोत्र की रचना की । नेपाल की गिरि कन्दराओं में उन्होंने महाप्राण ध्यान की विशिष्ट साधना की। संघ के अनुरोध पर उन्होंने आचार्य स्थूलभद्रजी को चौदहपूर्व का ज्ञान देना स्वीकार किया किन्तु कारणवश केवल दस पूर्वों का अर्थशः तथा चार पूर्वों का मूलतः ज्ञान प्रदान किया।
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आचार्य भद्रबाहुस्वामी, आगम रचनाकार थे। उन्होंने दशाश्रुतस्कंध, वृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ नामक छेदसूत्रों की रचना करके मुमुक्षु साधकों पर महान उपकार किया। आचारांग, सूत्रकृतांग, आवश्यकादि दस सूत्रों के उपर उन्होंने निर्युक्ति रची है। जिनशासन को सफल नेतृत्व एवं श्रुतसम्पदा का अमूल्य वरदान देकर श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी 76 वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर स्वर्ग पधारे।
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8. आचार्य स्थूलभद्र - स्थूलभद्र, नंदराजा के मंत्री शकडाल के ज्येष्ठ पुत्र थे। यौवनावस्था में कोशा वेश्या के मोह में फंसा दिए गये थे। षडयंत्र के कारण पिता की मृत्यु से वैरागी बने व आचार्य सम्भूतविजय के पास दीक्षा ली। श्रुतधर भद्रबाहु स्वामी श्री सम्भूतविजय के गुरूबन्धु थे। स्थूलभद्रजी ने आचार्य भद्रबाहु स्वामी के पास अर्थ से दश पूर्व और सूत्र से चौदह पूर्व का अध्ययन किया। एक समय कोशा वेश्या के यहाँ गुरू की आज्ञा से चातुर्मास किया। काम के घर में जाकर काम को पराजित किया। कोशा को धर्म में स्थिर किया। गुरु मुख से उनके इस कार्य को 'दुष्कर दुष्कर कारक' बिरूद मिला। 84 चौबीसी तक अपना नाम अमर करके प्रथम देवलोक में गये।
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