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3. आचार्य प्रभवस्वामी - विन्ध्य नरेश के ज्येष्ठ पुत्र प्रभव क्षत्रिय राजकुमार थे। किसी
कारणवश विन्ध्य नरेश ने अपने कनिष्ठ पुत्र को अपना उत्तराधिकारी बना दिया। इससे बुद्धिबल और शरीरबल के स्वामी प्रभव रूष्ट होकर चौरों की पल्ली में पहुँच कर 500 चौरों के नेता बन गये।
प्रभव के पास दो विधाएँ थी अवस्वापिनी और तालोद्घाटिनी ! अवस्वापिनी विद्या के द्वारा सबको निद्राधीन कर सकते थे और तार्लाद्घाटिनी विद्या के द्वारा तालो को खोल सकते थे। एक बार जम्बूस्वामी के यहाँ 500 चोरों के साथ चोरी करने गये। पति पत्नि के बीच वैराग्य प्रेरक संवाद सुनकर 500 चोरों के साथ सुधर्मास्वामी के पास दीक्षा ग्रहण की। जम्बूस्वामी के बाद शासन को संभालने वाले पूज्य श्री प्रथम श्रुतकेवली (चौदह पूर्व के ज्ञाता) बने। जैनशासन की धुरा को सौंपने के लिए श्रमण तथा श्रमणोपासक संघ में
लायक व्यक्ति न दिखने पर शय्यंभव भट्ट को प्रतिबोध देकर चारित्र दिया। अपने पट्ट पर शय्यंभव सूरि को स्थापन कर 85 वर्ष की आयु पूर्ण कर स्वर्ग सिधारें ।
4. शय्यंभवसूरि - शय्यंभवसूरि पूर्वावस्था में कर्मकांडी ब्राह्मण थे। एक समय वे राजगृही
नगरी में पशुमेघ यज्ञ करवा रहे थे, तब उनकी पात्रता को देखकर प्रभवस्वामी ने अपने दो मुनियों को उनके पास भेजा। यज्ञमंडप में जारी घोर हिंसा में डूबे हुए शय्यंभव को सुनायी पडे इस तरह दो मुनियों ने कहा, "धर्म के नाम पर चल रही क्रूर हिंसा में भला तत्त्व की किसे सूझबुझ है?"
शय्यंभव भट्ट ने यह सुनकर तत्वज्ञान पूछने के लिये क्रोधित हो प्रभवस्वामी के पास पहुँचकर खङ्ग अणकर बोले - तत्व बताओ। नहीं तो इस तलवार से सिर उठा दूंगा, प्रभवस्वामी ने सोचा 'शिरच्छेद की हालत में तत्व कहने में कोई दोष नहीं है' तब कहा कि - अहो ! यज्ञ स्तम्भ के नीचे श्री शांतिनाथ प्रभु की प्रतिमा शांति के लिए रखी गई है, उससे शांति हो रही है, यह चमत्कृत बात सुनकर भट्टजी को जैनधर्म पर रूचि हो गई है। परिणाम स्वरूप शय्यंभव यज्ञ, घरगृहस्थी एवं गर्भवती पत्नि - सब कुछ छोडकर, 28 वर्ष की आयु में साधु बन गये। प्रभवस्वामी से
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