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________________ गुरु-धर्म की आराधना का अवसर मिला। श्रेष्ठी सुव्रत के पास ग्यारह करोड़ की धन-सम्पत्ति थी, जिसमें से वह दान-लोकोपकार के कार्य करके पुण्योपार्जन करता रहा। एक बार सोरिपुर में धर्मघोष नामक आचार्य पधारे। सुव्रत श्रेष्ठी ने उपदेश श्रवण कर धर्ममार्ग पूछा तो आचार्यश्री ने कहा - "श्रेष्ठी! तुमने पूर्व-जन्म में मौन एकादशी व्रत की आराधना की थी। उस आराधना के फलस्वरूप ही तुझे यहाँ संसार के सुख और धर्ममार्ग की प्राप्ति हुई है। यहाँ पर भी तुम इसी एकादशी व्रत की आराधना करो।" ____ गुरुदेव के वचनों से प्रेरित होकर सेठ सुव्रत ने मौन एकादशी व्रत की आराधना प्रारम्भ की। एक दिन जब वह आठ प्रहर का पौषध व्रत लेकर अपनी पौषधशाला में धर्माराधना कर रहा था। उस रात्रि के समय में चार चोर उसके घर में घुस आये और सेठ के धन-भण्डार में से हीरे, मोती, स्वर्णमोहरें आदि की गठरियाँ बाँधने लगे। सेठ अपनी धर्माराधना में लीन था। चोर उसके सामने धन की गठरियाँ बाँध रहे थे, परन्तु देखकर भी सेठ ने धन का मोह नहीं किया और मौन भाव पूर्वक धर्मध्यान करता रहा। सेठ की धर्म के प्रति यह अडिगता और निष्ठा अद्भुत थी। वह सोचने लगा - 'यह धन मेरा नहीं है। मेरा तो ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप धन है जिसे कोई चुरा नहीं सकता।' उसी समय घर में चोरों की आहट से नौकर-चाकर जाग गये। चोरों को पकड़ लिया। रात्रि में पहरा देने वाले सिपाहियों को बुलाकर उनके हवाले कर दिया। सैनिकों ने चोरों को कारागार में बंद कर दिया और प्रात:काल होने पर राजा के सामने पेश किया। राजा ने सेठ सुव्रत को बुलाया और पूछा - “सेठ जी! क्या इन लोगों ने आपके घर में चोरी करने का प्रयास किया है?" सेठ को चोरों पर दया आ गई। सोचा - 'यदि मैं कह दूँगा कि हाँ, तो राजा इनको प्राण दण्ड देगा। मेरे कारण इन चार प्राणियों की हत्या हो जायेगी।' सेठ का दयालु हृदय काँप गया। उसने कहा - ‘महाराज! ये चोर नहीं हैं। ये तो मेरे पुराने सेवक हैं। घर का सामान इधर-उधर जो बिखरा पड़ा था उसे ठीक-ठाक कर रहे थे। आप इनको छोड़ दीजिये। इन्होंने चोरी नहीं की है।" सेठ की इस करुणाशीलता और उदारता पर राजा को भी बहुत आश्चर्य हुआ। नगर के लोगों ने भी सेठ की दयालुता की प्रशंसा की। चोरों का हृदय भी बदल गया। वे सेठ के चरणों में झुक गये। सेठजी - “आपकी दयालुता ने ही आज हमारी जीवन-रक्षा की है, हम भविष्य में कभी भी चोरी जैसा कोई दुष्कर्म नहीं करेंगे।'' इस प्रकार सेठ की उदारता और दयालुता के प्रभाव से चोरों का हृदय बदल गया। नगर में जिनधर्म की प्रभावना हुई। दूसरे वर्ष पुन: सेठ ने एकादशी व्रत की आराधना की। पौषध करके रात्रि में धर्म जागरण कर रहा था कि अचानक नगर में अग्नि प्रकोप हुआ। आसपास के भवन, दुकानें आदि अग्नि ज्वाला में जलकर भस्म होने लगे। लोग घरों से निकलकर इधर-उधर भागकर अपनी जान बचाने में जुट पड़े। परन्तु सेठ सुव्रत अडिंग भाव से आकुलता रहित अपनी धर्माराधना में स्थिर रहा। पड़ौसियों ने सेठ * HEE ॐ... S OOO E030 POORN
SR No.004055
Book TitleJain Dharm Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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