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________________ इस कारण उनके कल्याणक का महत्व है। इस दिन वाणी का संयम (मौन) रखकर चौविहार उपवास पूर्वक अष्ट प्रहरी पौषध व्रत में जाप के साथ डेढ़ सौ तीर्थंकर के कल्याणक की आराधना की जाती है। तप के साथ जप और जप के साथ ही मौन व्रत का इस दिन का विशेष महत्व है। मौन मन का अंतरंग तप है, वचन का भी तप है। मौनयुक्त उपवास होने से मन-वचन-काया तीनों योगों से तप की आराधना हो जाती है। यों देखे तो तन का तप है इन्द्रिय-संयम और उपवास वाणी का तप है मौन और जप तथा मन का तप है - ध्यान, एकाग्रता और तीनों का मिलन है मौन एकादशी व्रत । एक समय श्री नेमिनाथ भगवान को श्री कृष्ण वासुदेव द्वारिका नगरी के बाहर वंदन करने के लिये आये, विधि सहित अभिवंदन करके विनम्रभाव से प्रभु से पूछने लगे - 'हे स्वामिन मैं रात-दिन राज-कार्यों में व्यस्त रहता हूँ इसलिए धर्माराधना करने का विशेष समय नहीं मिल पाता। इस कारण मुझे ऐसा एक दिन बताइये जिस दिन समग्र राज-चिन्ताओं से मुक्त होकर निर्विकल्प भावपूर्वक धर्माराधना करने से मैं विशेष उत्तम फल की प्राप्ति कर सकूँ। भगवान नेमिनाथ ने कहा - 'वासुदेव! मिगसर सुदि एकादशी का दिन श्रेष्ठ और उत्तम दिन है जिस दिन मौनपूर्वक व्रत आराधना और तीर्थंकर देवों का स्मरण चिन्तन करने का महान फल होता भ श्रीकृष्ण वासुदेव ने पूछा ''प्रभो! अतीतकाल में इस व्रत की आराधना किसने की है? उसका क्या फल प्राप्त हुआ ?'' भगवान नेमिनाथ ने बताया-अतीतकाल में सुर नाम का एक धनाढ्य श्रेष्ठी था। मानव-जीवन के सुख भोगते हुए एक दिन उसके मन में विचार उठा - पूर्व जन्मों के पुण्य फल के रूप में मैं इस जन्म में सभी प्रकार के सुख भोग रहा हूँ। किन्तु यदि इस जन्म में धर्माराधना नहीं की तो फिर यह जीवन निरर्थक हो जायेगा और अगले जन्म में सद्गति नहीं मिल सकेगी।' यह विचार कर सुर श्रेष्ठी अपने धर्म-गुरु के पास गया और निवेदन किया-“गुरुदेव! मैं गृह-कार्यों में रात-दिन व्यस्त रहता हूँ। इस कारण धर्म-साधना में विशेष समय नहीं लगा सकता। कृपाकर मुझे कोई ऐसा मार्ग बताइये कि मैं कम समय में धर्माराधना करके विशेष फल की प्राप्ति कर सकूँ।'' इसके उत्तर में आचार्यश्री ने बताया - “हे श्रेष्ठी! मार्गशीर्ष मास की शुक्ल एकादशी के दिन आठ प्रहर का पौषध व्रत लेकर मौनपूर्वक इस दिन जिनेश्वर देव की आराधना करने का महान् फल होता है।" गुरुदेव की बताई विधि के अनुसार सुर श्रेष्ठी ने ग्यारह वर्ष तक प्रत्येक एकादशी को पौषध एवं पूर्ण मौनपूर्वक तप आराधना की। इस तप की आराधना से श्रेष्ठी सुर को अनेक शुभ फलों की प्राप्ति हुई। आयुष्य पूर्ण कर वह ग्यारहवें देवलोक में उत्पन्न हुआ और देव आयुष्य पूर्ण कर भरत क्षेत्र के सोरिपुर नगर में सुव्रत नाम का सेठ बना। पूर्व-जन्म के शुभ संस्कारों के कारण वहाँ भी उसे देव
SR No.004055
Book TitleJain Dharm Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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