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________________ को बहुत समझाया कि व्रत में भी आपत्तिकाल के आगार रहते हैं। तुम भागकर अपनी जान बचाओ। जीवित रहोगे तो व्रत आराधना फिर कर लेना। परन्तु सेठ सुव्रत अपने ध्यान से नहीं डिगा। तप का आश्चर्यजनक प्रभाव हआ कि परे नगर में जहाँ बडे-बडे भवन जलकर राख हो गये वहाँ सेठ सवत के भवन को आँच भी नहीं लगी। इसी प्रकार लोगों ने आश्चर्य के साथ धर्म का प्रभाव देखा और सुव्रत सेठ की प्रशंसा करने लगे। ग्यारह वर्ष तक सुव्रत सेठ ने लगातार मौन एकादशी व्रत की आराधना की। उसके बाद विजयशेखरसूरी के उपदेश से वैराग्य प्राप्त कर 11 कोटि मोहरों को त्यागकर दीक्षा ग्रहण कर ली। मुनि बनने के पश्चात् भी सुव्रत मुनि ने मौन एकादशी तप की आराधना का क्रम चालू ही रखा। एक दिन एकादशी के दिन सुव्रत मुनि ने प्रात: संकल्प किया - 'आज पूर्ण मौन रखूगा तथा अपने उपाश्रय से बाहर भी नहीं जाऊँगा।' रात्रि के समय एक मुनि के शरीर में वेदना उत्पन्न हुई। मुनि ने सुव्रत मुनि से कहा - "मेरे शरीर में तीव्र वेदना हो रही है। तुम किसी श्रावक के घर जाकर मेरे लिए औषध लेकर आओ या श्रावक को कहों कि वह वैद्य को बुलाकर लाये।" सुव्रत मुनि ने विचार किया - "मैंने तो आज पूर्ण मौन व्रत लिया है और उपाश्रय से बाहर जाने का भी त्याग किया है फिर कैसे अपना नियम तोडूं?' वेदनाग्रस्त मुनि के बार-बार कहने पर भी सुव्रत मुनि कुछ नहीं बोले तो मुनि को क्रोध आ गया। क्रोध में दूसरे मुनि ने सुव्रत मुनि को बहुत ही कठोर वचन बोले और अपने रजोहरण से बार-बार मारने भी लगे। सुव्रत मुनि फिर भी शान्त रहे, आक्रोश नहीं किया और अपनी आत्म-निरीक्षण करते रहे। उच्च शुभ भावधारा में बहते हुए उन्होंने घातिकर्मों का क्षय किया और केवलज्ञान प्राप्त कर केवली बन गये। अन्त में सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके मोक्ष गये। भगवान नेमिनाथ ने वासुदेव श्रीकृष्ण को मौन एकादशी का यह कथानक सुनाकर इस व्रत का महत्त्व बताया और कहा - “प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शक्ति के अनुसार मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन मौनपूर्वक तप, जप और तीर्थंकरों की आराधना करनी चाहिए। जैन-परम्परा में जो भी व्रत विधान है, पर्व-आराधना है उसके पीछे तप, जप और त्याग का उद्देश्य रहा है। मार्गशीर्ष मास की शुक्ल एकादशी के पीछे भी यही भावना है। हम सदा वचन का व्यवहार करते है, परन्तु वर्ष में एक दिन तो सम्पूर्ण मौन व्रत धारण कर मौन का भी आनन्द लेवें। DUAhimdsecon www.jainelibrary.org
SR No.004055
Book TitleJain Dharm Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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