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मूल - समाइ पेहाइ परिव्वयंतो, सिया मणो निस्सरई बहिद्धा ।
न सा महं नो वि अहं पि तीसे, इच्चेव ताओ विणएज्ज रागं ||4||
अन्वयार्थ - समाइ- समाधि की । पेहाइ- दृष्टि से । परिव्वयंतो - विचरते हुए । सिया कदाचित् I साधु का | मणो मन । बहिद्धा - संयम से बाहर । निस्सरई - निकल जाय । (प्रश्न) तब वह क्या करे? (उत्तर) सा- वह । महं मेरी । न नहीं और अहं पि- मैं भी । तीसे उसका । नो वि नहीं हूँ । इच्चेव - इस प्रकार सोचकर । ताओ रागं - उस स्त्री पर रहे हुए रागभाव को । विणएज्ज हटा ले।
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भावार्थ - राग-द्वेष रहित होकर शान्त व सम दृष्टि से साधना मार्ग पर चलते हुए भी कदाचित् कभी किसी साधक का मन संयम से बाहर निकल जाय, तो आत्मार्थी ऐसा सोचे कि वह मेरी नहीं और मैं उसका नहीं।
मूल - आयावयाहि चय सोगमल्लं, कामे कमाहि कमियं खु दुक्खं ।
छिंदाहि दोसं विणएज्न रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ||5||
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अन्वयार्थ - आयावयाहि - धूप एवं सर्दी की आतापना ले । चय सोगमल्लं - सुकुमारपन का परित्याग कर | कामे - कामवासना या कामनाओं को । कमाहि दूर कर तब । दुक्खं तेरा दुःख । कमियं खु - दूर हुआ, समझ । दोसं द्वेष का । छिंदाहि - छेदन कर । रागं- राग को विणएज्ज दूर हटा । एवं - ऐसा करने से । संपराए - संसार में । सुही सुखी । होहिसि - हो जाएगा।
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भावार्थ - शीत और गर्मी की आतापना लेते हुए सुकुमारता का परित्याग करो एवं कामनाओं का निवारण करे तो दुःख दूर हुआ समझो। द्वेष का छेदन करो और राग को अलग करो, ऐसा करने से संसार में सुखी हो जाओगे ।
मूल - पक्खंदे जलियं जोइं, धूमकेउं दुरासयं ।
च्छंति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे ||6||
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अन्वयार्थ - अगंधणे कुले अगन्धन कुल में। जाया- उत्पन्न हुए सर्प । जलियं जलती हुई । जोइं आग जो । धूमकेउं धूम के ध्वजा वाली और । दुरासयं दुःख से सहन करने योग्य विकराल आग में। पक्खंदे - कूद जाते हैं किन्तु । वंतयं वमन किये विष को । भोत्तुं भोगने, वापस लेने की । नेच्छति - इच्छा नहीं करते।
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भावार्थ - - अगन्धन कुल में जन्मे हुए सर्प विकराल जलती हुई अग्नि में कूदकर मर जाना मंजूर करते हैं, किन्तु वमन किये हुए विष को फिर से चूसने - खींचने की इच्छा नहीं करते, स्वीकार नहीं करते। साधक को भी अपनी प्रतिज्ञा पर इसी प्रकार की दृढ़ता से चलना चाहिए।
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