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द्वितीय अध्ययन
सामण्णपुव्वथं (श्रामण्यपूर्वक) मूल - कहं नु कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारए। पए पए विसीयंतो, संकप्पस्स वसंगओ ||1|| अन्वयार्थ - सामण्णं- श्रमण धर्म का पालन। कहं नु - वह कैसे। कुज्जा - करेगा | जो - जो | कामे - इच्छाओं (कामनाओं) का । न निवारए - निवारण नहीं करता है। पए पए - पग-पग पर | विसीयंतो - खेद पाता हुआ वह। संकप्पस्स - संकल्प विकल्प के | वसंगओ - आधीन होता है। भावार्थ - जो साधक कामनाओं का निवारण नहीं कर सकता, वह श्रमण धर्म का पालन कैसे करेगा? क्योंकि कामनाओं के आधीन पुरुष संकल्प विकल्प के वशीभूत होकर, पग-पग पर खेद प्राप्त करता है। अर्थात् कामनाओं पर विजय प्राप्त किये बिना श्रमण धर्म का यथावत् पालन नहीं किया जा सकता है। मूल - वत्थ - गंधमलंकारं, इत्थीओ सयणाणि य| अच्छंदा जे न भुजंति,न से चाइ त्ति वुच्चई ।।2।। अन्वयार्थ - वत्थ गन्धमलंकार - वस्त्र, कपूर आदि गंध एवं अलंकार | इत्थीओ - स्त्रियाँ । य - और | सयणाणि - पलंग आदि शय्याओं को | अच्छंदा - असमर्थता, परवशता से। जे - जो | न भुंजंति - नहीं भोगते। से - वे| चाइ त्ति - त्यागी हैं ऐसा | न वुच्चइ - नहीं कहलाते। भावार्थ - वस्त्र, गन्ध, माला, आभूषण और संसार की विविध रमणीय भोग सामग्री का पराधीनता या रोगादि के भय से चाहते हुए भी जो भोग नहीं कर पाते। वस्तुतः वे त्यागी नहीं कहलाते हैं। मूल - जे य कंते पिए भोए, लद्धे वि पिट्ठी कुव्वइ। साहीणे चपइ भोए, से हुचाइ त्ति वुच्चइ ।।3।। अन्वयार्थ - जे - जो। कंते - कान्त, मनोहर। य - और | पिए - प्रिय | भोए - भोगों को। लद्धे वि - मिलने पर भी । पिट्ठी कुव्वइ - पीठ करता है, तथा । साहीणे - स्वाधीन यानी प्राप्त | चयइ भोए - भोगों को छोड़ता है। से हु - वह ही। चाइ त्ति - त्यागी । वुच्चइ - कहलाता है। भावार्थ - सुन्दर और रुचिकर भोग-सामग्री के मिलने पर भी उससे पीठ करता है, यानी उसे ठुकरा देता है और प्राप्त भोगों को स्वेच्छा से छोड़ देता है, वस्तुत: वह ही त्यागी कहलाता है।
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