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________________ भावार्थ - जो लोक में आरम्भादि से मुक्त साधु होते हैं, वे फूलों पर भँवरे के समान, दाता द्वारा दिये गये निर्दोष आहार की गवेषणा में रत रहते हैं । मूल - वयं च वित्तिं लब्भामो, न य कोइ उवहम्मइ । अहागडेसु रीयंते, पुप्फेसु भमरा जहा ||4|| अन्वयार्थ - वयं च - और हम वित्तिं - ऐसी वृत्ति । लब्मामो प्राप्त करेंगे, जिसमें छोटा-बड़ा । न य कोई उवहम्मइ - कोई भी जीव कष्ट प्राप्त नहीं करे। पुप्फेसु - फूलों पर । भमरा - भँवरे । जहा - जैसे | रीयंते - जाते हैं। अहागडेसु - वैसे ही हम गृहस्थों के द्वारा, उनके निज के लिये बनाये गये भोजन थोड़ा-थोड़ा लेकर विचरण करते रहेंगे। भावार्थ - शिष्य गुरुदेव के चरणों में यह प्रतिज्ञा करते हैं कि जिस प्रकार भँवरा फूलों से रस लेने में किसी को कष्ट नहीं पहुँचाता है। हम भी ऐसी रीति अपनायेंगे, जिससे कि किसी को किसी प्रकार का कष्ट न हो। फूलों पर भँवरों की तरह गृहस्थ के यहाँ उनके उपभोग के लिये बनाये आहार में से ही थोड़ा-थोड़ा हम ग्रहण करेंगे। मूल- महुगार समाबुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया । नाणापिंडरया दंता, तेण वुच्छंति साहुणो ।। त्ति बेमि ||5|| - अन्वयार्थ - महुगार समा- भँवरे के समान । जे बुद्धा - जो ज्ञानवान् । दंता - जितेन्द्रिय तथा । अणिस्सिया - कुल जाति के प्रतिबंध से रहित वे। भवंति - होते हैं। नाणापिंडरया - अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा प्रासुक आहार लेते हैं। तेण - इसलिये वे । साहुणो- साधु । वुच्चंति - कहलाते हैं। त्ति बेमि - ऐसा मैं कहता हूँ । T भावार्थ - जैन श्रमण भ्रमरवृत्ति वाले होते हैं। तत्त्वों के ज्ञाता व भ्रमर के समान किसी एक कुल, जाति या व्यक्ति के आश्रित नहीं होकर अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा प्रकार का निर्दोष व प्रासुक आहारपानी लेकर सन्तुष्ट और जितेन्द्रिय बनकर रहते हैं, इसलिये वे साघु कहलाते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ। || प्रथम अध्ययन समाप्त || $95
SR No.004055
Book TitleJain Dharm Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages126
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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