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मूल - धिरत्थु तेऽजसोकामी, जो तं जीविय-कारणा। वंतं इच्छसि आवेउं, सेयं ते मरणं भवे ||7|| अन्वयार्थ - धिरत्थु - धिक्कार है | अजसोकामी - हे अपयश के कामी। (असंयम की कामना वाले)। ते - तुमको | जो - जो | तं - तुम। जीविय कारणा - भोगी जीवन जीने के लिये । वंतं - छोड़े हुए भोगों को | आवेउं - फिर भोगना | इच्छसि - चाहते हो, इसकी अपेक्षा तो । ते - तुम्हारा | मरणं - मर जाना। सेयं - अच्छा। भवे - है। भावार्थ - हे अपयश के कामी ! तुझे धिक्कार है, जो तू त्यागे हुए पदार्थ को फिर भोगना चाहता है। इससे तो तुम्हारा संयम अवस्था में रहकर मरना श्रेयस्कर है, क्योंकि प्रण (प्रतिज्ञा) का महत्त्व प्राणों से भी अधिक है। मूल - अहं च भोगरायस्स, तं चऽसि अंधगवण्हिणो । मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर ||8|| अन्वयार्थ - अहं च - मैं तो। भोगरायस्स - भोजराज उग्रसेन की पुत्री हूँ। तं च - और तुम। अन्धगवण्हिणो - अन्धकवृष्णि समुद्रविजय के पुत्र। असि - हो। कुले - अपने कुल में। गंधणा - गन्धनजाति के सर्प के समान। मा होमो - मत बनो। संजमं - संयम का | निहुओ - स्थिर-एकाग्र मन से। चर - आचरण करो, पालन करो। भावार्थ - कुलाभिमान को जागृत करते हुए सती राजीमती कहती है - “ रथनेमिजी! मैं भोजराज उग्रसेन की पुत्री हूँ और तुम महाराज समुद्र विजय के पुत्र हो। ऐसे उच्च कुल में जन्म पाकर, हम गन्धनकुल के नाग की तरह नहीं बनें, किन्तु मैं और तुम एकाग्र मन से संयम धर्म का आचरण कर, अपने कुल का गौरव बढ़ाएँ। मूल - जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारिओ। वायाविद्धो व्व हडो, अट्ठि-अप्पा भविस्ससि।।७।। अन्वयार्थ - जइ तं - यदि तू। भावं-चंचल भाव। काहिसि - करेगा तो। जा जा - जिन जिन। नारिओ - नारियों को। दिच्छसि - देखेगा, उससे | वायाविद्धो -तेज पवन से प्रेरित। हडो व्व - हड वृक्ष (पानी के वृक्ष विशेष) के समान। अट्ठिअप्पा - अस्थिर आत्मा। भविरस्सि - हो जाएगा। भावार्थ - हे मुनि! यदि तू जिन-जिन नारियों को देखेगा और उन पर विकारी भाव करेगा तो तू तेज हवा से कम्पित हड वृक्ष की तरह अस्थिर आत्मा वाला हो जाएगा। मूल - तीसे सो वयणं सोच्चा, संजयाए सुभासियं| अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ ||10||
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