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________________ 12. अतिथि संविभाग व्रत :- अतिथि संविभाग शब्द के दो खण्ड हैं। अतिथि और संविभाग, अतिथि अर्थात् तिथि, पर्व आदि सारे लौकिक व्यवहारों का त्याग कर भोजन के समय में आहारादि के लिये आवे वह अतिथि कहलाता हैं। श्रावक श्राविका तथा साधु-साध्वी ही अतिथि के रूप में यहां ग्रहण किए गए हैं अन्य सामान्य अतिथि नहीं होते हैं। उन अतिथियों को संविभाग अर्थात् श्रद्धा भावना से विभोर होकर अत्यंत सम्मान के साथ उनके लिए न्यायोपार्जित, निर्दोष आहार, वस्त्र, पात्र आदि जीवन-निर्वाह के लिये आवश्यक पदार्थों को देकर प्रतिलाभित करना। अन्य व्रतों की भांति अतिथि संविभागवत के भी पांच अतिचार हैं। ए। 1-सचित्तनिश्पण 1. सचित्त निक्षेपण - अचित वस्तु में (न 2-सचित्तपिधान देने की इच्छा से या भूलकर) सचित्त सचित्त वस्तु से ढक देना। वस्तु मिला देना। साधु को देने योग्य आहार को CONDA (यह किताबें मेरी नहीं हैं इसलिए नहीं दे सकता। KOOD0002. सचित्त पिधान - अचित वस्तु को , साधु को देने योग्य आहार सचित से ढक देना। को सचित्त वस्तु के. ऊपर रख देना। 3. परव्यपदेश - गुरू को न देने की इच्छा से अपनी वस्तु को पराई कहना और देने की इच्छा से पराई वस्तु को अपनी कहना। | 4. मात्सर्य - ईर्ष्या व अहंकार की भावना से दान देना। 3-पर व्यपदेश देखो महाराज इतना मंहगा कपड़ा मेरे अलावा आपको कोई नहीं दे सकता। भोजन समाप्त 4-मात्सर्य अहंकार प्रदर्शन करते. हुए दान देना 4 हा गया। 5-कालातिक्रम an 15. कालातिक्रम - भिक्षा . का समय बीत जाने पर साधु-साध्वी को गोचरी के लिये निमंत्रण देना। पूर्वोक्त संक्षिप्त विवेचन से ज्ञात होता कि व्रत बंधन नहीं हैं, वरन जीवन के विकास एवं शुद्धिकरण के अनुपम साधन है, आसक्तियों के बंधन से सही मायनों में मुक्ति है। भिक्षा का समय बीत जाने पर साधु के आने से पहले ही भोजन समाप्त कर देना।
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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