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________________ पुष्टि करने वाली व्रत साधना पौषध व्रत है । अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व तिथियों में सांसारिक कार्यों से निवृत्त होकर धर्मस्थान में जाकर आठ प्रहर या चार प्रहर के लिए आत्मा को धर्म ध्यान में लगाना पौषध व्रत है। आवश्यक वृत्ति में पौषध के मुख्य रूप से चार भेद बताये हैं : : आहार त्याग आर ब्रह्मचर्य प 1. आहार पौषध :- पौषध में चार या तीन प्रकार के आहार का त्याग करना । 2. शरीर पौषध :- स्नान, विलेपन आदि द्वारा शरीर की शोभा विभूषा का त्याग करना । 3. ब्रह्मचर्य पौषध :- पौषध में सभी प्रकार के मैथुन . प्रवृत्तियों का त्याग करना । मैथुन त्याग 4 अव्यापार :- • सभी प्रकार के सावद्य प्रवृत्तियों का त्याग करना । 2. अप्रत्यवेक्षित - अप्रमार्जित आदान निक्षेप : वस्तु को देखे बिना या प्रमार्जन किये बिना उठाना रखना। पौषध व्रत के पांच अतिचार इस प्रकार है : 1. अप्रत्यवेक्षित - अप्रमार्जित उत्सर्ग :- जीव आदि को भली-भांति देखे बिना और कोमल उपकरण से भूमि को साफ किये बिना ही मल-मूत्र - श्लेष्म आदि को परठ देना, फेंक देना, डाल देना । स्नान त्याग व्यापार त्याग 3. अप्रत्यवेक्षित - अप्रमार्जित संस्तार उपक्रम :- पडिलेहण और प्रमार्जन किये बिना संथारे पर सोना-बैठना, आसन बिछाना आदि। संबोध प्रकरण में कहा गया है कि 4. अनादर :- श्रद्धा रूचिपूर्वक पौषध न करना । 5. स्मृति अनुपस्थापन :- पौषध व्रत में काल आदि की विस्मृति हो जाना। 57 एक आठ प्रहर के शुद्ध पौषध करने से सताईस अरब, सतहतर करोड़, सतहतर लाख, सतहतर हजार, सात सौ सतहतर पल्योपम और पल्योपम के सात नवमांश भाग (27,77,77,77,777) जितना देव आयुष्य का बंध होता है।
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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