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________________ प्रवृत्ति नहीं करूंगा। निश्चित सीमा से आगे व्यापार आदि प्रवृत्तियां न करने की मर्यादा में भी पाँच अतिचार लग सकते हैं। 1. ऊर्ध्वदिशापरिमाणातिक्रम - ऊर्ध्वदिशा में गमनागमन के लिये जो क्षेत्र मर्यादा निश्चित कर रखी है उस क्षेत्र को उल्लंघन कर जाना। 2. अधोदिशापरिमाणातिक्रम - नीची दिशा में गमनागमन के लिये जो क्षेत्र-मर्यादा रखी है, उसका भंग हो जाना। 3. तिर्यग्दिशापरिमाणातिक्रम - पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, नैऋत्य, वायव्य, ईशान और आग्नेय दिशाविदिशाओं में जो क्षेत्र मर्यादा रखी है उसका अतिक्रमण हो जाना। 4. क्षेत्रवृद्धि - एक दिशा के परिमाण का अमुक अंश दूसरे दिशा के परिमाण में मिला देना। 5. स्मृतिभ्रंश - निर्धारित सीमा की विस्मृति। 7. भोगोपभोग परिमाणव्रत :__व्यक्ति की भोगवृत्ति सीमित करना ही इस व्रत का उद्देश्य है। भोग - एक ही बार काम में आवे ऐसी वस्तुओं का उपयोग जैसे अन्नपान, फूल, 5 विलेपन आदि का उपयोग। उपभोग - जो बार-बार उपयोग में आवे ।। ऐसी वस्तुओं - जैसे वाहन, वस्त्र, आसन. स्त्री आदि का उपयोग करना। सातवे व्रत में भोग एवं उपभोग की वस्तुओं का प्रमाण कर यथा शक्ति त्याग कर देना चाहिए। अन्नपान में, जहाँ तक हो सके सचित्त खाने का त्याग करना चाहिए। क्योंकि इनमें जीव का नाश सीधा अपने मुँह से होता है। इस व्रत में बाईस अभक्ष्य, बत्तीस अनंतकाय तथा पन्द्रह कर्मादान का त्याग किया जाता है तथा चौदह नियम का पालन किया जाता है। इस व्रत के पाँच अतिचार इस प्रकार है1. सचिताहार - सचित का अर्थ है-चेतना सहित। जो सचित वस्तु मर्यादा में नहीं है, उसका आहार करने पर सचिताहार का दोष लगता है। 2. सचित्त प्रतिबद्धाहार - चीज तो अचित हो लेकिन वह सचित वस्तु से जुड़ी हो, उसका MNED PR 51
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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