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शारीरिक गतिविधियों पर ध्यान केन्द्रित करना, जिसे हम शरीरप्रेक्षा भी कह सकते हैं, किन्तु पिण्ड का अर्थ भौतिक तत्व करने पर पार्थिवी आदि धारणाएँ भी पिण्डस्थ ध्यान के अन्तर्गत ही आ जाती हैं ये धारणाएँ निम्न हैं -
1. पार्थिवी 2. आग्नेयी 3. मारूती 4. वारूणी 5. तत्त्ववती (1) पार्थिवीधारणा - पृथ्वी सम्बंधी विचार वाली धारणा आचार्य हेमचंद्रसूरीजी के योगशास्त्र के अनुसार पार्थिवीधारणा में साधक को मध्यलोक के समान एक अतिविस्तृत क्षीरसागर का चिंतन करना चाहिए । फिर यह विचार करना चाहिए कि उस क्षीरसागर के मध्य में जम्बूद्वीप के समान एक लाख योजन विस्तार वाला
और एक हजार पंखुड़ियों वाला एक कमल है । उस कमल के मध्य में देदीप्यमान स्वर्णिम आभा से युक्त मेरू पर्वत के समान एक लाख योजन उँची कर्णिका है, उस कर्णिका के उपर एक उज्जवल श्वेत सिंहसान है, उस सिंहासन पर आसीन होकर मेरी आत्मा अष्टकर्मों का समूल उच्छेदन कर रही है। (2) आग्नेयीधारणा - ज्ञानार्णव और योगशास्त्र में इस धारणा के विषय में कहा गया है कि साधक अपने नाभि मण्डल में सोलह पंखुड़ियों वाले कमल का चिंतन करे । फिर उस कमल की कर्णिका पर अहँ की, और प्रत्येक पंखुडी पर क्रमशः अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लु, लु, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः- इन सोलह स्वरों की स्थापना करें । इसके पश्चात अपने हृदय भाग में अधोमुख आठ पंखुड़ियाँ वाले कमल का चिंतन करें और यह विचार करें कि ये आठ पंखुड़ियाँ अनुक्रम से :. ज्ञानावरणीय 2. दर्शनावरणीय 3. वेदनीय 4. मोहनीय 5. आयुष्य 6. नाम 7. गोत्र और 8. अंतराय कर्मों की प्रतिनिधि हैं । इसके पश्चात् यह चिंतन करे कि उस अहँ से जो अग्नि शिखायें निकल रही है. उनसे अष्ट दल कमल की अष्टकर्मों की प्रतिनिधिये पंखडियाँ जल रही हैं । उसके बाद तीन कोण वाले स्वस्तिक तथा अग्निबीज रेफ से युक्त अग्निकुंड का चिंतन करना चाहिए
और यह अनुभव करना चाहिए कि उस रेफ से निकली हुई ज्वालाओं ने अष्टकर्मों के साथ-साथ मेरे इस शरीर को भी भस्मी भूत कर दिया है । इसके पश्चात् उस अग्नि के शांत होने की धारणा करें। (3) वायवीय धारणा - आग्नेयी धारणा के पश्चात् साधक यह चिंतन करे कि समग्र लोक के पर्वतों को चलायमान कर देने में और समुद्रों को भी क्षुब्ध कर देने में समर्थ प्रचण्ड पवन बह रहा है तथा मेरे देह और आठ कर्मों के भस्मीभूत होने से जो राख बनी थी, उसे वह प्रचण्ड पवन वेग से उडाकर ले जा रहा है । अंत में यह चिंतन करना चाहिए कि उस राख को उड़ाकर यह पवन भी शांत हो रहा है। (4) वारूणीय धारणा - वायवीय धारणा के पश्चात् साधक यह चिंतन करे कि अर्धचन्द्राकार कलाबिन्दु से युक्त वरूण बीज वं से उत्पन्न अमृत के समान जल से युक्त मेघमालाओं से आकाश व्याप्त है और इन मेघमालाओं से जो जल बरस रहा है, उसने शरीर और कर्मों की जो भस्मी उड़ी थी उसे भी धो दिया है। (5) तत्त्ववती धारणा - उपर्युक्त चारों धारणाओं के द्वारा सप्तधातुओं से बने शरीर और अष्टकर्मों के समाप्त हो जाने पर साधक पूर्णचन्द्र के समान निर्मल एवं उज्जवल कांति वाले विशुद्ध आत्मतत्व का चिंतन करें और यह अनुभव करे कि उस सिंहासन पर आसीन मेरी शुद्ध-बुद्ध आत्मा अरिहंत स्वरूप है।
इस प्रकार की ध्यान-साधना के फल की चर्चा करते हुए आचार्य हेमचन्द्रसूरिजी कहते है कि
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