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________________ दिया गया है। ____5. अकाममरणीय : प्रस्तुत अध्ययन में दो प्रकार के अकाम मरण और सकाम मरण का विवेचन किया गया हैं। विवेक शून्य पुरुषों का मरण अकाम मरण है जो पुनः पुनः होता है। विवेकी पुरुषों का मरण सकाममरण है। इस सकाममरण को समाधिमरण और पंडितमरण भी कहा गया है। 6. क्षुल्लक निग्रन्थीय : अज्ञान और अनाचार के कटु परिणाम बताकर सम्यग्ज्ञान और शुद्ध आचार में दृढ़ होने की प्रेरणा दी गई है। 7. एलय (उरब्भिय) : सातवें अध्ययन में अनासक्ति पर बल दिया है। जहां आसक्ति है, वहाँ दुख है, जहाँ अनासक्ति है वहां सुख है। इन्द्रिय क्षणिक सुख की ओर प्रेरित होती है, पर वह सच्चा सुख नहीं होता। वह सुखाभास है। प्रस्तुत अध्ययन में कामभोगों से विरक्त होने के लिए पांच उदाहरणों के माध्यम से विषय को स्पष्ट किया है। ___8. कापिलीय : इस अध्ययन में लोभ की अभिवृद्धि का सजीव चित्रण किया गया है। ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ बढ़ता जाता है। इस विषय में कपिल केवली की कथा प्रसिद्ध है। लोभ-अलोभ और रागविराग का संघर्ष जीवन में सदा से चलता रहा है। कपिल का अन्तर्मानस उसे राग से विराग की ओर उन्मुख करता है, दो मासा स्वर्ण के लिए रात भर भटकने वाला विशाल साम्रराज्य से भी तृप्त नहीं हुआ है। लोभ, असंतोष, अतृप्ति के गहरे सागर में डूबता ही गया, डूबता ही गया, पर डूबते को तिनके का सहारा मिला, वापस मुड़ा और एक सूत्र पर अटक गया-लोभ की खाई कभी भरने वाली नहीं है। वह लोभ से विरक्त होकर मुनि बन गया। एक बार चोरों ने कापिल मुनि को घेर लिया। उस समय उन्होंने संगीतात्मक उपदेश दिया। । उसी का इसमें संग्रह है। कपिलमुनि के द्वारा यह गाया गया है अतः इसे कापिलीय कहा गया है। 9. नमि प्रवज्या : प्रस्तुत अध्ययन में नमि राजर्षि और शक्रेन्द्र का वैराग्य की कसौटी करनेवाला गहन संवाद है। 10. द्रुम पत्रक : वृक्ष के पत्ते से मनुष्य जीवन की तुलना की गई है। जैसे वृक्ष का पीला पड़ा हुआ पत्ता समय व्यतीत होने पर स्वयं ही झड़कर गिर जाता है, वैसे ही आयुष्य पूर्ण होने पर मनुष्य का जीवन भी समाप्त हो जाता है। जैसे कुश के अग्रभाग पर स्थित ओस की बिन्दु क्षणस्थायी है वैसे ही मनुष्य का जीवन भी क्षणभंगुर है। इसलिए क्षण मात्र भी प्रमाद न कर | समयं गोयम! मा पमायए! इस प्रकार 36 बार प्रस्तुत अध्ययन में गौतम के बहाने सभी साधकों को आत्म साधना में क्षण मात्र का भी प्रमाद न करने का संदेश भगवान महावीर ने दिया है। ___11. बहुश्रुत पूजा : बहुश्रुत का अर्थ - चतुर्दशपूर्वी है। प्रस्तुत अध्ययन में बहुश्रुत के लक्षण तथा उनकी 16 उपमाओं का वर्णन हैं। 12. हरिकेशीय : इस अध्ययन में मुनि हरिकेशी का वर्णन है। 13. चित्त सम्भूतीय : इस अध्ययन में चित्त और सम्भूत नाम के दो भाइयों की छह जन्मों की पूर्वकथा का
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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