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________________ बतलाये हुए चार सूत्रों के पठन-श्रवण से सम्यक्त्व वृक्ष का मूल दृढ़ होता है इसी अभिप्राय से इन्हें मूलसूत्र कहते हैं। वे इस प्रकार है :1. आवश्यक 2. उत्तराध्ययन 3. दशवैकालिक 4. पिण्डनियुक्ति सामान्यतया 1. आवश्यक, 2. उत्तराध्ययन, 3. दशवैकालिक और 4. पिण्ड नियुक्ति - ये चार मूल सूत्र माने गये है। स्थानकवासी और तेरापंथी संप्रदाय आवश्यक और पिण्डनियुक्ति के स्थान पर नंदी सूत्र एवं अनुयोगद्वार को मूल सूत्र मानते है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में कुछ आचार्यों ने पिण्डनियुक्ति के साथसाथ ओघनियुक्ति को भी मूल सूत्र में माना है। 1. आवश्यक : चतुर्विध संघ के लिए प्रतिदिन दोनों समय अवश्य करने योग्य आवश्यकों का वर्णन इस आगम में किया गया है। इसमें सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान ये छह अध्ययन है। इनमें अपने-अपने नाम के अनुरुप सूत्रों व क्रिया विधियों को बताया है। 2. उत्तराध्ययन सूत्र : उत्तराध्ययन में दो शब्द है - उत्तर और अध्ययन। उत्तर शब्द का अर्थ है श्रेष्ठ या उत्तम तथा अध्ययन का अर्थ है - शास्त्र या ग्रंथ। इस प्रकार उत्तराध्ययन शब्द का अर्थबोध होता है - श्रेष्ठ शास्त्र या पवित्र ग्रंथ। जैन आगम साहित्य में उत्तराध्ययन सूत्र का अत्यधिक महत्व है, गौरव है। यद्यपि आगम-विभाजन व वर्गीकरण की दृष्टि से इसे अंग बाह्य आगम माना है, किन्तु साथ ही यह भी माना गया है कि इस आगम की प्ररूपणा श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने निर्वाण से कुछ ही समय पूर्व पावापुरी के अंतिम समवसरण में की थी। श्रुत केवली भद्रबाहु स्वामी ने कल्पसूत्र में लिखा है कि श्रमण भगवान महावीर स्वामी पुण्य फल-विपाक वाले 55 अध्ययन और पाप फल-विपाक वाले 55 अध्ययन एवं 36 अपृष्ठ व्याकरणों (बिना पूछे गये प्रश्न) का प्ररुपण करते-करते सिद्ध बुद्ध मुक्त हो गये। प्रस्तुत आगम में छत्तीस अध्ययनों के नाम और उनमें वर्णित विषय इस प्रकार है : 1. विनय : विनय का अर्थ शिष्टाचार से परिपालन है। गुरुजनों के समक्ष कैसे बैठना, बोलना, चलना उनके अनुशासन में रहकर किस प्रकार ज्ञानार्जन करना और सम्भाषण एवं वर्तन में किस प्रकार का विवेक रखना यह सब जीवन व्यवहार प्रथम अध्ययन में सम्मिलित है। साथ ही अविनीत के लक्षण भी बताए गए हैं। 2. परीषह : ज्ञान प्राप्ति के लिए विनय अनिवार्य है, वैसे चारित्र धर्म के पालन में परीषहों को समतापूर्वक सहन करना आवश्यक है। इसलिए मोक्षमार्ग के साधकों को 22 परीषह सहन करने की इस दूसरे अध्ययन में प्रेरणा दी है। 3. चतुरंगीय : तृतीय अध्ययन में मनुष्यत्व, धर्मश्रवण, श्रद्धा और संयम में पुरुषार्थ इन चार अंगों की दुर्लभता का विवेचन किया गया है। 4. असंस्कृत : चतुर्थ अध्ययन में संसार की क्षणभंगुरता का प्रतिपादन करके अप्रमत्त रहने का उपदेश 11 mucationpreness majanelibrary orm
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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