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________________ उपांग : अंगों में कहे हुए अर्थों का स्पष्ट बोध कराने वाले सूत्र उपांग है। जैसे शरीर के उपांग हाथ, पैर, कान आदि होते हैं, उसी प्रकार आगम पुरुष के ग्यारह अंगों के बारह उपांग है। जिस अंग में जिस विषय का वर्णन किया गया है, उस विषय का आवश्यकतानुसार विशेष कथन उसके उपांग में है। उपांग एक प्रकार के अंगों के स्पष्टीकरण रुप परिशिष्ट भाग है। उपांग के बारह प्रकार है :1. औपपातिक(ओववाइयं) 7. चंद्रप्रज्ञप्ति (चंद पन्नत्ति) 2. राजप्रश्नीय (रायपसेनीय) 8. निरयावलिया-कल्पिका (कप्पिआ) 3. जीवाजीवाभिगम 9. कल्पावतंसिका (कप्पवडंसिआ) 4. प्रज्ञापना (पन्नवणा) 10. पुष्पिका (पुप्फिआ) 5. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (जंबूद्वीप पन्नत्ति) 11. पुष्प चूलिका (पुप्फ चूलिआ) 6. सूर्य प्रज्ञप्ति (सूर पन्नत्ति) 12. वृष्णिदशा (वण्हिदसा) 1. औपपातिक : यह आचारांग का उपांग है। इसमें चम्पानगरी, कोणिक राजा, श्री महावीर स्वामी का चरित्र, साधु के गुण, तप के 12 प्रकार, तीर्थंकर भगवान के समवसरण की रचना, चार गतियों में जाने के कारण केवली समुद्घान, मोक्ष सुख आदि विषयों का खूब विस्तार के साथ विवेचन किया गया है। 2. राजप्रश्नीय : प्रस्तुत आगम दो विभागों में विभक्त है। प्रथम विभाग में सूर्याभ नामक देव भगवान महावीर स्वामी के समक्ष उपस्थित होकर अष्टप्रकारी पूजा, नृत्य, नाटक आदि करता है। दूसरे विभाग में राजा प्रदेशी का पार्श्वनाथ परम्परा के केशीकुमार श्रमण से जीव के अस्तित्व और नास्तित्व को लेकर संवाद 3. जीवाजीवाभिगम : इस आगम में श्रमण भगवान महावीर और गणधर गौतम स्वामी के प्रश्न और उत्तर के रूप में जीव और अजीव के भेद और प्रभेदों की चर्चा की गई है। 4. प्रज्ञापना ः प्रज्ञापना का शब्दार्थ बताते हुए कहा कि जिसके द्वारा जीवादि पदार्थों का भली प्रकार से ज्ञान किया जाता है, उसे प्रज्ञापना कहते है। इस सूत्र में नौ तत्वों का समावेश द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से किया गया है। इसके अतिरिक्त धर्म, दर्शन, इतिहास, भूगोल आदि के अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों का चिंतन है। प्रस्तुत आगम के रचियता श्यामाचार्य थे। 5. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति : इसमें जम्बूद्वीप में रहे हुए भरत, ऐरावत आदि का क्षेत्र और उनके पर्वत, द्रह, नदी आदि का विस्तार पूर्वक वर्णन है। इसके अतिरिक्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल विभागों का तथा कुलकर, तीर्थंकर ऋषभदेव, भरत चक्रवर्ती आदि का विवेचन हैं। 6-7. सूर्य प्रज्ञप्ति - चन्द्रप्रज्ञप्ति : प्रस्तुत दोनों सूत्रों में क्रमशः सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्रों की गतियों का विस्तार से वर्णन है। ज्योतिष संबंधी मान्यताओं के अध्ययन के लिए ये दोनों आगम विशेष महत्वपूर्ण है। PORATOPPOOOOOO C al&
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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