SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 10. प्रश्नव्याकरण सूत्र प्रश्नव्याकरण सूत्र का आगम साहित्य में एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें प्रश्नों का समाधान है। यह दो श्रुतस्कंधों में विभक्त है। प्रथम श्रुतस्कंध में पांच आश्रव-मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग का वर्णन है तथा दूसरे श्रुतस्कंध में पांच संवर-सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय और अयोग का वर्णन है। आश्रव और संवर का निरुपण आगम साहित्य में अनेक स्थानों पर हुआ है। किन्तु इसमें जिस विस्तार से विश्लेषण किया गया है, वैसा विश्लेषण किसी अन्य आगम साहित्य में उपलब्ध नहीं हैं। प्रस्तुत आगम की यह अपनी विशेषता है। 11. विपाक श्रुत इस आगम में सुकृत (सुख) और दुष्कृत (दुख) कर्मों के विपाक का वर्णन किया गया है, अतः इसका नाम विपाक सूत्र है। इसके भी दो श्रुतस्कंध है। पहला दुख विपाक और दूसरा सुख विपाक। प्रथम में मृगापुत्र (लोढीया) आदि दस पापी जीवों का वर्णन है और पापकर्म का फल कितना भयंकर होता है यह भी बतलाया है। दूसरे सुख विपाक में सुबाहुकुमार वगैरह दस पुण्यशाली पुरुषों का वर्णन है जिन्होंने दान, पुण्य, तप, संयम का सेवन करके सुख प्राप्त किया है। 12. दृष्टिवाद दृष्टिवाद बारहवां अंग है, जिसमें संसार के सभी दर्शनों पदार्थों, रहस्यों एवं नयों का वर्णन किया गया है। यह आगम वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। इसके पांच विभाग है। परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका। पूर्वगत विभाग में चौदह पूर्वो का समावेश हो जाता है। जब आर्यरक्षित वेद-वेदांगों तथा अन्य सभी प्रकार के ज्ञान के पारगामी विद्वान होकर लौटे तो उनकी माता ने एक ही शब्द कहा दृष्टिवाद पढो। क्योंकि इसी के द्वारा तुम्हें आत्मा का सच्चा स्वरूप ज्ञात हो सकेगा। तुम समस्त सिद्धान्त के ज्ञाता हो जाओगे। आत्म कल्याण के लिए दृष्टिवाद का अध्ययन अपेक्षित है। माता के इन वचनों को सुनकर आर्यरक्षित दृष्टिवाद के अध्ययन के लिए चल दिए। गुरू के पास दीक्षा लेकर दृष्टिवाद का अध्ययन किया। II). अंग बाह्य या अनंग प्रविष्ट भगवान के मुक्त व्याकरण (खुले प्रश्नोत्तर, उपदेश) के आधार पर जिन ग्रंथों की रचना श्रुत केवली, स्थविर आदि करते हैं वे अंग बाह्य कहलाते है। प्राचीन काल में अंग बाह्य श्रुत को दो भागों में विभक्त किया जाता था। 1. आवश्यक और 2. आवश्यक व्यतिरिक्त उत्तरवर्ती युग में उसके निम्न विभाग किये गये - 1. उपांग, 2. मूल, 3. छेद, 4. पइन्ना (प्रकीर्णक) और 5. चूलिका PिOOOO 20 Horsorgappa
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy