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________________ हुआ है वैसा अन्य साहित्य में नहीं हैं। आगम के विभाग आगम दो विभागों में विभक्त है :1. अर्थागम और 2. सूत्रागम 1. अर्थागम :- तीर्थंकर के अर्थ रूप उपदेश को अर्थागम कहते है। 2. सूत्रागम :- तीर्थंकर के उपदेशों के आधार पर उनके प्रमुख शिष्य गणधर उन उपदेशों को सूत्र रुप में गुंथते है वह सूत्रागम है। इन्हीं एक-एक सूत्र के पुन: अनंत-अनंत अर्थ हो सकते हैं। जैन आगमों को प्रणेता की दृष्टि से दो भागों में बांटा जा सकता है। 1. अंग प्रविष्ट और 2. अंगबाह्य या अनंग प्रविष्ट गौतम आदि गणधरों द्वारा रचित श्रुत को अंगप्रविष्ट कहा जाता है तथा जो अंग बाह्य आगमं है वे आचार्य भद्रबाहु स्वामी आदि स्थविर-वृद्ध आचार्यों द्वारा रचित है। इन्हें गणिपिटक के नाम से भी जाना जाता है। जैन अंग आगम की संख्या के संबंध में श्वेताम्बर और दिगम्बर सभी एक मत है। परन्तु अंगबाह्य आगमों की संख्या के संबंध में यह बात नहीं है, उसमें विभिन्न मत हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ परम्परा में मूलत: 84 आगमों का उल्लेख आता है जिनमें से आज 45 आगम मिलते हैं। श्वेताम्बर स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा में 32 आगम मानते हैं। वर्तमान युग में जो आगम उपलब्ध है, वे निम्न भागों में विभक्त है :45 आगम 32 आगम , अंग - 11 अंग - 11 उपांग - 12 उपांग - 12 मूलसूत्र - 4 छेद - 4 छेद सूत्र - 6 मूल - 4 पइन्ना (प्रकीर्णक) - 10 आवश्यक - 1 चूलिका - 2 दिगम्बर समाज की मान्यता है कि वर्तमान में सभी आगमों का विच्छेद हो गया है। 1. अंग प्रविष्ट (द्वादशांगी) आगम भगवान महावीर स्वामी के ग्यारह गणधरों ने जो आगमों की रचना की वह अंग प्रविष्ट है। इसका मुख्य आधार है त्रिपदी- उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य। गणधर सर्वप्रथम तीर्थंकर भगवान के समक्ष यह जिज्ञासा अभिव्यक्त करते है कि भगवन्। तत्व क्या है (भगवं किं तत्व ?) उत्तर में भगवान उन्हें उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा, यह त्रिपदी प्रदान करते है। त्रिपदी के फल स्वरूप वे जिन आगमों का निर्माण करते है वे आगम E nition
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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