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________________ ज्ञानाराधना का पावन पर्व : ज्ञान पंचमी पर्व इस विश्व में अनेकानेक वस्तुएँ विद्यमान है जिनमें से अनेक वस्तुएं हमारे लिए उपकारक हैं और अनेक वस्तुएं अनुपकारक भी हैं । जो 3 पुकारक हैं, वे उपादेय हैं और जो अनुपकारक है, वे हेय, छोड़ने योग्य हैं। जो वस्तुएँ उपकारक है, उन में ज्ञान श्रेष्ठ और प्रथम है। ज्ञान, आत्मा का अद्वितीय एवं विशिष्ट गुण है। जिस क्रिया में जिस विधान में या जिस आराधना में ज्ञान नहीं है, वह क्रिया, विधान या आराधना आत्मा के लिए आनंदप्रद नहीं होती है। श्री दशवैकालिक सूत्र में कहा है :पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्व संजये।। अन्नाणी किं काही, किंवा नाही सेय पावगं ।। पहले ज्ञान और बाद में दया। इस प्रकार ज्ञान युक्त संयम (दयादि) से युक्त साधु संयत कहलाते है। अज्ञानी पुण्य और पाप को क्या समझे ? सब कर्मों का उच्छेद करके आत्मा जब सिद्धि स्थान में विराजमान होती है, तब भी आत्मा सज्ञान होती है। इसलिए कि आत्मा और ज्ञान का सर्वथा अभिन्न और नित्य संबंध है। अज्ञान तिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जन शलाकया। __नेत्रंरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ।। अज्ञान एक ऐसा अंधकार है, जिसे हजारों सूर्य का प्रकाश भी दूर नहीं कर सकता। अज्ञान संसार में सबसे भयानक अंधकार है। सबसे अधिक खतरनाक और सबसे ज्यादा दुःखदायी है। इसलिए अज्ञान से निकलकर ज्ञान का दीपक जलाने वाले, ज्ञान की ज्योति देने वाले गुरु को महान् उपकारी माना जाता है। ज्ञानदान संसार में सबसे श्रेष्ठ और सर्वोच्च दान है। दीपावली पर्व बाह्य अंधकार पर प्रकाश की विजय का प्रदर्शन करती है तो दीपावली के बाद आने वाली ज्ञान पंचमी मन के अंधकार को मिटाकर ज्ञान का दीपक जलाने की प्रेरणा देती है। __ जैन परम्परा में कार्तिक शुक्ला पंचमी का विशिष्ट महत्व है। इस दिन गुरु अपने नव शिष्यों को शास्त्र की पहली वाचना देते थे। नया शास्त्र स्वाध्याय इस दिन प्रारंभ किया जाता है। कुछ इतिहासकारों की यह भी एक धारणा है कि पंचमी के दिन ही गणधर सुधर्मा स्वामी भगवान के पट्ट पर विराजमान हुए होंगे। गणधर सुधर्मा स्वामी से भगवान महावीर का अवरुद्ध ज्ञान प्रवाह आगे प्रवाहित हुआ है। इस दृष्टि से पंचमी को श्रुतज्ञान प्रवाह की आदि तिथि माना जाता है। जैन परम्परा में ज्ञानपंचमी के दिन श्रुताराधना, श्रुत-उपासना की परम्परा कब से प्रचलित हुई उसका 41GAAAAAAAAAAAAAA schlab DEducatbornuternational aalorer.org
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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