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________________ तुच्छोसहि-भक्खणया कम्मओ य णं समणोवासएणं पण्णरस-कम्मादाणाई जाणियव्वाइं न समायरियव्वाई तं जहा ते आलेउंइंगालकम्मे वणकम्मे साडीकम्मे भाडीकम्मे फोडीकम्मे दन्तवाणिज्जे लक्खवाणिज्जे रसवाणिज्जे केसवाणिज्जे विसवाणिज्जे जंतपीलणकम्मे निल्लंछणकम्मे दवग्गिदावणया सरदह-तलाय-सोसणया । असई-जण-पोसणया तुच्छ औषधि (जिसमें सार भाग कम हो उस वस्तु) का भक्षण करना। कर्मादान की अपेक्षा। श्रावक के जो। 15 कर्मादान हैं वे। जानने योग्य हैं। परन्तु आदर ने योग्य नहीं हैं। वे इस प्रकार हैं। उनकी मैं आलोचना करता हूँ। ईंट, कोयला, चूना आदि बनाना। वृक्षों को काटना। गाड़ियाँ आदि बनाकर बेचना। गाड़ी आदि किराये पर देना। पत्थर आदि फोड़कर कमाना। दाँत आदि का व्यापार करना। लाख आदि का व्यापार करना। शराब आदि रसों का व्यापार। दास-दासी, पशु आदि का व्यापार। विष, सोमल, संखिया आदि तथा शास्त्रादि का व्यापार करना। तिल आदि पीलने के यन्त्र चलाना। नपुंसक बनाने का काम करना। जंगल में आग लगाना। सरोवर तालाब आदि सुखाना। वैश्या आदि का पोषण कर दुष्कर्म से द्रव्य कमाना। 8. आठवाँ अणछदण्ड - विरमण व्रत चउव्विहे अणट्ठादंडे पण्णत्ते तं जहा-अवज्झाणायरिये, पमायायरिये, हिंसप्प-याणे, पावकम्मोवएसे एवं आठवाँ अणट्ठादण्ड सेवन का पच्चक्खाण, जिसमें आठ आगार-आए वा, राए वा, नाए वा, परिवारे वा, देवे वा, नागे वा, जक्खे वा, भूए वा, एत्तिएहिं, आगारेहिं, अण्णत्थ जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा एवं आठवाँ अणादण्ड विरमण व्रत के पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तं जहा ते आलोउं-कंदप्पे, कुक्कुइए, 102
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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