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________________ उत्तम मिठाईयों से नैवेद्य पूजा। संसार में जन्म पाना नहीं चाहता, याने मुझे अजन्मा बनना है। चावल से छिलका निकलने पर उसका अखंड उज्जवल स्वरुप प्रकट हो जाता है। उसी प्रकार आत्मा पर से कर्मों का छिलका दूर होकर आत्मा का शुद्ध अखण्ड उज्जवल स्वरुप प्रकट हो। अतः प्रभो ! अक्षत पूजा के द्वारा आत्मा के अक्षय खजाने को प्राप्त करने के लिए आपके चरणों में आया हूँ। 7. नैवेद्य पूजा :- हे अणाहारी प्रभु ! जन्म मरण के जंजाल में फंसे मुझे परभव में जाते हुए विग्रह गति में अनंतबार अणाहारी रहने का योग कर्म सत्ता के कारण बना, परंतु यह योगपूर्ण होते ही सीधी जन्म की सजा आरंभ हो जाती है। अनंतकाल में मेरी आत्मा ने अनगिनत जड द्रव्यों का भोग किया, फिर भी मेरी इच्छा रुपी भूख शांत नहीं हुई। जैसे खाई कभी भरी नहीं जा सकती, वैसे ही भोगों से कभी तृष्णा शांत नहीं होती। सागर के समान अथाह इच्छाओं की पूर्ति में मैं संसार में भटकता रहा पर अब, नैवेद्य पूजा के माध्यम यह अभिलाषा करता हूँ कि मेरी आहार संज्ञा नष्ट हो एवं मुझे अणाहारी पद प्राप्त हो। 8. फल पूजा :- हे प्रभु ! वृक्ष के बीज की अंतिम परिनति फल होती है, वैसे ही आपकी फलों द्वारा पूजा करते हुए मैं यही कामना करता हूँ कि इस फल पूजा के प्रभाव से मुझे अंतिम याने सम्यग् दर्शन का बीजारोपण के बाद मोक्षफल की प्राप्ति हो। जग में जिसको भी मैंने अपना माना वह मुझे छोडकर चला गया, क्योंकि संयोग का वियोग निश्चित है। फिर इष्ट के वियोग में मैं अशांत आकुलित होता रहा जो पुनः दुख वृद्धि का ही कारण बना। जब कि मैं मूल स्वभाव से आनंद स्वरुप, शांत स्वभावी चेतन हूँ। मुक्ति ही मेरी सहज अवस्था है। अतः जिस मोह के बंधन के कारण मैं दुःखी हूँ, वह मोह ही दूर जाए और वही फल पूजा का सार्थक परिणाम होगा। परमात्मा की पूजा परमगुणवान तीर्थंकर परमात्मा के प्रति विशिष्ट बहुमान भक्ति और अनुराग आदि का कारण बनती हैं और इन्हीं के कारण जीवन मैं देशविरति, सर्वविरति आदि जिनाज्ञा को स्वीकार और पालन सहज सुलभ होता है। परंपरा में अहिंसा आदि सर्वगुणों की सर्वोच्च परिपूर्णता रुप सिद्ध अवस्था की प्राप्ति होती है। प्रभु पूजा के तात्कालिक फल यह है कि उन भगवान के गुणों के अत्यधिक प्रशस्त भावों के कारण हमारे जीवन में रहे हए अमंगल पापों का नाश होता है एवं मंगल पुण्य का सर्जन होकर जीवन में ऐसी समाधि व प्रसन्नता आती है कि हम प्रभु आज्ञा का पालन व्रत नियम आदि सुचारु रुप से करके आत्म विकास को साध सकें। निमित्तों की अत्यंत प्रबलता का अत्यंत प्रभाव जहां पर रहा हुआ है ऐसे गृहस्थ जीवन के आत्मोत्थान के लिए श्रेष्ठतम निमित्त रुप परमात्मा की विधियुक्त पूजा महाकल्याण करनेवाली है। wwxxxxx70 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004053
Book TitleJain Dharm Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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