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________________ विद्यमान है जो समस्त गुणों का विश्राम है। इन तीनों को पूर्ण रुप से वर्णन करने में मैं असमर्थ हूँ। इन गुणों की संग्राहक नाभि कमल की अर्चना कर मैं विनंती करता हूँ कि उस गुण राशि के अंकुर मुझ में भी अंकुरित हो। इस प्रकार नौं अंगों की पूजा में निहित अमूल्य भावों को आत्मसात कर हमें जिनेन्द्र भगवान की पूजा तन - मन - लगन के साथ करनी चाहिए। 3. पुष्पपूजा :- हे प्रभु ! आपके चरणों में पुष्प समर्पित करते हुए मैं यह कामना करता हूँ कि जिस तरह यह पुष्प पूर्ण विकसित, सुगंधित और कोमल है, जैसे वे दिखाई देते हैं, वैसे ही उनका स्वरुप है। उसमें किसी प्रकार की माया नहीं है परंतु मेरे अंतर भावों की दशा में इतनी माया है कि भीतर में चिंतन कुछ करता हूँ, बोलता कुछ हूँ और करता कुछ हूँ अर्थात् मेरी आत्मा में अभी भी सरलता नहीं है, अतः प्रभो ! पुष्प पूजा के द्वारा निज स्वरुप में ऐसी स्थिरता को प्राप्त करुं जो अंतर के इस माया रुपी कालुष्य के होने वाली हो। 4. धूप पूजा :- हे प्रभु ! जैसे ये धूप की घटाएँ उर्ध्वगमन कर रही है, वैसे ही उर्ध्वगति जो आत्मा का वास्तविक स्वभाव है वह मुझे शीघ्र प्राप्त हो और मैं भी आपकी तरह मिथ्यात्वरुपी दुर्गंध दूर करके शुद्धात्म स्वरुप प्रकट करके सिद्धि प्राप्त करुं यही कामना धूप खेते हुए करता हूँ। धूप पूजा गंभारे में नहीं, रंग मंडप में प्रभु की बायी ओर खडे होकर की जाती है। 5. दीपक पूजा :- हे ज्ञान दीपक ! दीपक उजाले का प्रतीक है। आपने तो ऐसा भावदीप जलाया है जिसके प्रकाश में आप लोकालोक को देख सकते हैं। हे प्रभु ! आपके सामने द्रव्य का प्रकाश लेकर में यही कामना करता हूँ कि मेरे अंतर में केवलज्ञान रुपी भाव दीपक प्रकट हो और अज्ञान का अंधकार दूर हो जाए। आपके अंतर में ज्ञानरुपी दीपक की लौ है उससे मेरे अंतर के ज्ञानरुपी दीपक को प्रज्वलित करने आया हूँ। दीपक पूजा करते समय दीप को थाली में रखकर उसे दोनों हाथों से पकडकर प्रभु की दायी ओर खडे रहना चाहिए। अधिक समय तक रखे जाने वाले दीपक को चिमनी आदि से ढंकना चाहिए। 6. अक्षत पूजा :- हे परमतारक ! शुद्ध अखंड अक्षत का स्वस्तिक आलेखित करके चतुर्गतिमय संसार का सम्यगदर्शन, ज्ञान, चारित्र रुपी रत्नत्रयी की आराधना से अंत करके अक्षय सिद्धशिला का परमधाम मुझे प्राप्त हो ऐसी प्रार्थना आपसे करता हूँ। ये अक्षत जिस प्रकार बोने पर पुनः उगते नहीं है, उसी प्रकार मैं इस 569 Jain Education Intematonal For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004053
Book TitleJain Dharm Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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