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________________ यह शिरशिखा अत्यंत पवित्र है। प्रभुवर पूजा करते समय में भी यही कामना करता हूँ कि मैं भी समस्त कर्मों का क्षय करने निरंजन - निराकार स्वरुप सिद्ध अवस्था प्राप्त करके सिद्धशिला पर पहुँच जाऊँ। 6. ललाट: तीर्थंकर पद पुण्य थी, त्रिभुवन जन सेवंत। त्रिभुवन तिलक समा प्रभु, भाल तिलक जयवंत।। हे तीर्थपते ! आपने अपने पुरुषार्थ द्वारा अनेक परिषहों को सहन कर कर्म मल को दूर कर दिया और तीर्थंकर नाम कर्म निकाचित किया। इसलिए तीनों भुवनों के लोग आपकी सेवा करते हैं। आप त्रिभुवन के तिलक के समान है। अतएव मैं आपके तिलक के स्थान ललाट की भक्तिपूर्वक पूजा करता हुआ चाहता हूँ कि मेरे सर्व विकार दूर हो और मैं परमोच्च अवस्था को प्राप्त करुं। 7.कंठ: सोलह प्रहर प्रभु देशना, कंठे विवर वर्तुल। मुधर ध्वनि सुरनर सुने, तिने गले तिलक अमूल।। हे प्रभु ! आपने मोक्ष जाने से पहले सोलह प्रहर तक अपने पवित्र कंठ से धर्म देशना देकर जगत का उद्धार किया। आज भी आपकी कंठ ध्वनि इस जगत के लिए परम आधार है। अत एव मैं उसकी परम उल्लास से पूजा करता हुआ प्रेरणा चाहता हूँ कि मेरा कंठ निरंतर आपका गुणगान करता रहे। मैं आपकी मंगलमयी वाणी का सच्चा अनुगामी बनूं और आपके आदर्शों का हित, मत, पथ्य एवं वाणी द्वारा सत्य प्रचार करुं। 8. हृदय : हृदय कमल उपशम बले, बाल्या राग ने रोष। हिमदहे वन खंड ने हृदय तिलक संतोष || हे करुणासिन्धु ! जिस प्रकार पाला (अत्याधिक ठंडा बर्फ) गिरने से सारी वनस्पति का नाश हो जाता है। उसी प्रकार प्रभु के हृदय में सदैव बसने वाला उपशम रस रुपी क्षमा, धैर्य, आदि जो अत्यधिक शीतल है उससे रागद्वेष नष्ट हो जाते हैं। अर्थात् ठंडे हो जाते हैं। प्रभुवर आपकी “सवि जीव करुं शासन रसी' की भावना आपके अनुपम उदार हृदय की परिचायिका (परिचय करानेवाली) है। आपके जिस हृदय में असीम क्षमा, असाधारण धैर्य, अपार सहनशीलता एवं अलौकिक समता का निवास था उसकी पूजा करके मैं धन्य हूँ। मेरा वही दिन सफल होगा जिस दिन मेरे हृदय में इन गुणों का वास होगा। मेरी पूजा करने का सार इसी में है हृदय में मैत्री, प्रमोद, माध्यस्थ एवं करुणा भावना का विकास हो। 9. नाभी: रत्नत्रयीगुण उजली, सकल सुगुण विश्राम। नाभि कमल नी पूजना, करता अविचल धाम। हे गुणागार ! आपके नाभि कमल में सम्यग् ज्ञान सम्यग् दर्शन और सम्यग् चारित्र रुपी तीन उज्जवल गुण 68 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004053
Book TitleJain Dharm Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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