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परमात्मा के घुटनों पर पूजा करते वक्त विचार करना चाहिए कि आप इन्हीं घुटनों के द्वारा पैदल विहार करते हुए देश - विदेशक में विचर कर अनादि काल में इस भव अटवी में भटकते हुए भव्य प्राणियों को द्वादशांगी वाणी द्वारा सच्चा मार्ग बतलाकर शाश्वत् सुख प्रदान किया। ये वे घुटने हैं, जिनके बल पर केवलज्ञान प्राप्त न होने तक आप काउस्सग्ग ध्यान में खडे रहे। आपकी जानु की पूजा करने से मुझे भी ऐसा बल प्राप्त होवे कि जब तक मुझे केवलज्ञान की प्राप्ति न होवे तब तक खडे - खडे ध्यान में रहूँ। 3. कलाई :
लोकांतिक वचने करी, वरस्या वरसीदान।
कर कांडे प्रभु पूजना, पूजो भवि बहुमान।। परमात्मा की कलाईयों पर पूजा करते वक्त चिंतन करना चाहिए। हे दानवीर प्रभु ! लोकांतिक देवों द्वारा प्रार्थना करने पर आपने तुरंत ही राजसी वैभव को त्याग कर दीक्षा लेने का निश्चय कर तीन अरब, अट्ठासी लाख अस्सी हजार सोना मुहरों का दान दिया है। ये वे सिद्ध हस्त है, जिनके द्वारा आपने सैकडों मुमुक्षुओं को रजोहरण देकर धर्मतीर्थ की स्थापना की है।
हे नाथ ! आपकी कलाईयों की पूजा करते हुए ऐसी प्रार्थना करता हूँ कि मुझे भी शीघ्र ही गुरु भगवंतों का सान्निध्य मिले और छः काय जीवों की रक्षा करते हुए आत्म कल्याण करूँ। 4. कंधा :
मानगयुं दोय अंश थी, देखी वीर्य अनन्त।
भुजाबले भवजल तर्या, पूजो खंध महंत।। अहंकार का एडस् है :- कंधा, जब इंसान अभिमान से भर जाता है, तब उसके कंधे सतत पीछे होने लगते हैं। हे निराभिमानी प्रभु ! आपमें अचिंत्य शक्ति व सामर्थ्य होने पर भी अहंकार को प्रवेश नहीं दिया है। माता - पिता मोहवश होकर आपको विद्याध्ययन हेतु पंडित के पास ले गये। तीन ज्ञान से युक्त होने पर भी आप शांत रहे। आपकी स्कंध पूजा करते हुए प्रार्थना करता हूँ कि मेरा भी अहंकार नष्ट हो और विनय गुण की प्राप्ति करूं । आत्म कल्याण की जिम्मेदारी का मेरे कंधे पर सुचारु रुप से वहन करूं। 5. सिरशिखा (मस्तक) :
प्रत्येक तीर्थंकर की आत्मा मृत्यु के समय सिर से निकलती है। सिर के जिस भाग से आत्मा निकलती है वह भाग ही शिखा कहलाता है जो कि कुछ उठा होता है तथा अत्यधिक पवित्र माना गया है इसलिए सिर पूजा करते समय शिखा की पूजा करने का विधान है। इसकी पूजा करते समय नीचे लिखे भाव रखें।
सिद्धशिला गुण ऊजली, लोकांते भगवंत।
वसियां तिणे कारण भवि, शिरशिखा पूजंत।। हे सिद्ध परमात्मा ! इस संसार के अग्रभाग पर सिद्धशिला है जो कि उज्जवल एवं स्फटिक जैसी निर्मल है। वहाँ पर प्रभु की आत्मा सिर के मध्य भाग से निकलकर शुद्ध, बुद्ध मुक्त अवस्था में पहुँचती है। इसलिए
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