________________
प्रत्याख्यान :
इच्छाओं के निरोध के लिए प्रत्याख्यान एक आवश्यक कर्तव्य है। प्रति + आ + ख्यान, इन तीन शब्दों से प्रत्याख्यान शब्द बना है । प्रति का अर्थ है प्रतिकूल प्रवृत्ति, आ = मर्यादापूर्वक और ख्यान = कथन करना । प्रत्याख्यान का अर्थ है प्रवृत्ति को मर्यादित अथवा सीमित करना । अविरति और संयम के प्रतिकूल रुप में मर्यादा के साथ प्रतिज्ञा ग्रहण करना प्रत्याख्यान है। संयमपूर्ण जीवन के लिए त्याग आवश्यक है, इस रुप में प्रत्याख्यान का अर्थ त्याग माना गया है।
इस विराट् विश्व में इतने अधिक पदार्थ हैं, जिनकी परिगणना करना संभव नहीं और उन सब वस्तुओं को एक ही व्यक्ति भोगे, यह भी कभी संभव नहीं । चाहे कितनी भी लंबी उम्र क्यों न हो, तथापि एक मानव संसार की सभी वस्तुओं का उपभोग नहीं कर सकता। मानव की इच्छाएं असीम हैं। वह सभी वस्तुओं को पाना चाहता है। चक्रवर्ती सम्राट को सभी वस्तुएं प्राप्त हो जाए तो भी उसकी इच्छाओं का अंत नहीं आता है। इच्छाएं दिन दूनी और रात चौगुनी बढती रहती है । इच्छाओं के कारण मानव के अंतर्मानस में सदा अशांति बनी रहती है। उस अशांति को नष्ट करने का एक मात्र उपाय है प्रत्याख्यान । प्रत्याख्यान में साधक अनासक्ति का विकास एवं तृष्णा को नष्ट करता है। आत्मशुद्धि के लिए वह प्रतिदिन यथाशक्ति किसी न किसी प्रकार का त्याग करता है। जैसे सूर्य उदय के पश्चात् एक प्रहर अथवा दो प्रहर आदि तक कुछ नहीं खाना या संपूर्ण दिवस के लिए आहार का त्याग करना, केवल नीरस या रुखा भोजन करना आदि। अनुयोग द्वार में प्रत्याख्यान का दूसरा नाम गुण धारण दिया है। गुणधारण का अर्थ है व्रत रुपी गुणों को धारण करना । * प्रत्याख्यान के दो रूप है :
द्रव्य प्रत्याख्यान
भाव प्रत्याख्यान
आहार सामग्री वस्त्र परिग्रह राग द्वेष कषाय मानसिक प्रवृत्तियाँ
1. द्रव्य प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान है।
2. भाव प्रत्याख्यान :- राग, द्वेष कषाय आदि अशुभ मानसिक वृत्तियों का त्याग करना भाव प्रत्याख्यान है। इसी तरह प्रत्याख्यान के अन्य दो भेद भी कहे गए हैं।
प्रत्याख्यान
आहार सामग्री, वस्त्र, परिग्रह आदि बाह्य पदार्थों में से कुछ को छोड देना द्रव्य
Jain Education International
प्रत्याख्यान
मूलगुण प्रत्याख्यान
सर्व मूल गुण पाँच महाव्रत
देश मूल गुण
J
पाँच अणुव्रत
उत्तर गुण प्रत्याख्यान
सर्व उत्तर गुण
उपवास, आयंबिल
एकासना आदि
56
For Personal & Private Use Only
देश उत्तर गुण
गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत
www.jainelibrary.org