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5. ध्यान :- कायोत्सर्ग में शुभध्यान का सहज अभ्यास हो जाता है।
प्रयोजन की दृष्टि से भी कायोत्सर्ग के दो भेद किये हुए है:- 1. चेष्टा कायोत्सर्ग और 2. अभिभव कायोत्सर्ग
1. चेष्टा कायोत्सर्ग :- दोष - विशुद्धि के लिए किया जाता है। जो साधु-साध्वी गोचरी आदि के लिए बाहर जाते हैं या निद्रा त्याग आदि में जो प्रवृत्ति होती है उसमें दोष लगने पर उसकी विशुद्धि के लिए यह कायोत्सर्ग किया जाता है। 2. अभिभव कायोत्सर्ग :- दो स्थितियों में किया जाता है :
* दीर्घकाल तक आत्मचिंतन के लिए या आत्मशुद्धि के लिए मन को एकाग्र कर कायोत्सर्ग करना।
* संकट आने पर, राजा, अग्निकांड आदि। षडावश्यक में जो कायोत्सर्ग है उसमें चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स) का ध्यान किया जाता है। इसमें 7 श्लोक और 28 चरण हैं। एक उच्छवास में एक चरण का ध्यान किया जाता है। सामान्यतः एक लोगस्स का ध्यान (चंदेसु निम्मलयरा तक) पच्चीस उच्छवासों में संपन्न होता है। इस प्रकार चतुर्विंशतिस्तव का कायोत्सर्ग होता है।
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