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प्रदान करता है। जब हम तीर्थंकरों की स्तुति करते है तो प्रत्येक तीर्थंकर का एक उज्जवल आदर्श हमारे सामने रहता है। भगवान् ऋषभदेव का स्मरण आते ही आदियुग का चित्र मानस पटल पर चमकने लगता है। वह सोचने लगता है कि भगवान् ने इस मानव संस्कृति का निर्माण किया । राज्यव्यवस्था का संचालन किया। मनुष्य को कला, सभ्यता और धर्म का पाठ पढाया। राजसी वैभव को छोडकर वे श्रमण बने। लगभग 400 दिन तक आहार पानी न मिलने पर भी चेहरा प्रसन्नचित्त रहा। भगवान् शांतिनाथ का जीवन शांति का महान् प्रतीक है। भगवती मल्लीनाथ का वनारी जीवन का एक ज्वलंत आदर्श है। भगवान् अरिष्टनेमि करुणा के साक्षात् अवतार है। पशु-पक्षियों की प्राण रक्षा के लिए वे सर्वांगसुंदरी राजीमती का भी परित्याग कर देते हैं। भगवान पार्श्व का स्मरण आते ही उस युग की तप परंपरा का एक रुप सामने आता है, जिसमें ज्ञान की ज्योति नहीं है, अंतर्मानस में कषायों की ज्वालाएँ धधक रही हैं तो बाहर भी पंचाग्नि की ज्वालाएँ, सुलग रही है। वे उन ज्वालाओं में से जलते हुए नाग को बचाते है। कमठ के द्वारा भयंकर यातना देने पर भी उनके मन में रोष पैदा नहीं हुआ और धरणेन्द्र पद्मावती के द्वारा स्तुति करने पर भी मन में प्रसन्नता नहीं हुई। यह है उनका वीतरागी रुप । भगवान् महावीर का जीवन महान् क्रान्तिकारी जीवन है। अनेक अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों से भी वे तनिक मात्र भी विचलित नहीं हुए। आर्यों और अनार्यों के द्वारा देवों और दानवों के द्वारा, पशु पक्षियों के द्वारा दिए गए उपसर्गों में वे मेरु की तरह अविचल रहे । जाति पांति का खण्डन कर वे गुणों की महत्ता पर बल दिया। नारी जाति को प्रतिष्ठा प्रदान की ।
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24 तीर्थंकरो के काया के अपने अपने वर्ण है और उन वर्ण का ध्यान भी लोगस्स सूत्र के माध्यम से किया जा सकता है। इससे शरीर में पंच भूतों की विशुद्धि होती है एवं सभी चक्रों की भी विशुद्धि होती है। विशुद्धि आध्यात्मिक जीवन उत्थान के लिए होती है। तीर्थंकर तो साधनामार्ग के आलोक स्तंभ है। आलोक स्तंभ जहाज का पथ प्रदर्शन करता है, पर चलने का कार्य तो जहाज का ही है। वैसे ही साधना की ओर प्रगति करना साधक का कार्य है। जैन दृष्टि से व्यक्ति का लक्ष्य स्वयं का साक्षात्कार है। अपने में रही हुई शक्ति की अभिव्यक्ति करना है। साधक के अंतर्मानस में जिस प्रकार की श्रद्धा / भावना होगी, उसी प्रकार का उसका जीवन बनेगा। जिस घर में गरुड पक्षी का निवास हो, उस घर में साँप नहीं रह सकता । साँप गरुड की प्रतिच्छाया से भाग जाते हैं। जिनके हृदय में तीर्थंकरों की स्तुति रुप गरुड आसीन है, वहाँ पर पाप रुपी साँप नहीं रह पाते। तीर्थंकरों का पावन स्मरण ही पाप को नष्ट कर देता है।
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एक शिष्य ने जिज्ञासा प्रस्तुत की भगवन् ! चतुर्विंशतिस्तव करने से किस सद्गुण की उपलब्धि होती है ? भगवान् महावीरस्वामी ने समाधान करते हुए कहा:- चतुर्विंशतिस्तव करने से दर्शन की विशुद्धि होती है। चतुर्विंशतिस्तव के अनेक लाभ हैं। उससे श्रद्धा परिमार्जित होती है, सम्यक्त्व विशुद्ध होता है। उपसर्ग और परीषहों को समभाव से सहन करने की शक्ति विकसित होती है और तीर्थंकर बनने की पवित्र प्रेरणा मन में जागृत होती है। इसलिए षडावश्यकों में तीर्थंकरस्तुति या चतुर्विंशतिस्तव को स्थान दिया गया है।
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