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सा मोगरे-
धाम तित्यावर
श्री लोगस्स सूत्र
* चतुर्विंशतिस्तव *
चौवीस तीर्थंकरों या वीतराग देवों की स्तुति करना चतुर्विंशतिस्तव है। साधक, स्तुति द्वारा वीतराग परमात्मा के गुणों का गुणगान करता है। उनकी स्तुति या भक्ति के माध्यम से साधक अपने अहंकार का नाश और सद्गुणों के प्रति अनुराग की वृद्धि करता है।
तीर्थंकर त्याग और वैराग्य की दृष्टि से, संयम साधना की दृष्टि से महान् है। उनके गुणों का कीर्तन करने से साधक के अन्तर्हृदय में आध्यात्मिक बल का संचार होता है। संसार में जो शुभतर परमाणु है, उनसे तीर्थंकर का शरीर बनता है, इसलिए रुप की दृष्टि से भी तीर्थंकर महान्
हिमामाज
पर मणिमुल नामीजण च।
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वंशाधि रिमि
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एवं गए अभियुआ, विहुवाय-याला यहीणजन-मरणा। विनिय-बदिय-महिया, एलोगाम उत्तमा सिद्धा। चमीस मिनियाका लिया से यीचं
आममा बोहिला, माहियर मुनय सिंतु
बरम निवलपरा, आईयेस अहिय पाय-यरा
बागा-या गंभोग
तीर्थंकर मति, श्रुत व अवधिज्ञान के साथ जन्म लेते हैं। दीक्षा अंगीकार करते ही उन्हें मनःपर्यवज्ञान प्राप्त हो जाता है और साधना के पश्चात् उनमें केवलज्ञान का दिव्य आलोक जगमगाने लगता है, अतः ज्ञान की दृष्टि से
तीर्थंकर महान् है। दर्शन की दृष्टि से तीर्थंकर क्षायिक सम्यक्त्व के धारक होते हैं। उनका चारित्र उत्तरोत्तर विकसित होता है। छद्मस्थ काल में उनके परिणाम सदा वर्धमान में रहते हैं। ज्ञान, दर्शन और चारित्र के साथ ही दान में उनकी बराबरी कोई भी नहीं कर सकता। वे दीक्षा के पूर्व एक वर्ष तक प्रतिदिन एक करोड आठ लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान देते हैं। वे श्रेष्ठ ब्रह्मचारी होते हैं। साधना काल में देवांगनाएं भी अपने अद्भुत रुप में उनको आकर्षित नहीं कर पाती। तप काल में तीर्थंकर जल भी ग्रहण नहीं करते। भावना के क्षेत्र में तीर्थंकरों की भावना उत्तरोत्तर निर्मल और निर्मलतम होती जाती हैं। इस प्रकार तीर्थंकरों का जीवन विविध विशेषताओं से परिपूर्ण है। साधक भी अपने हृदय में तीर्थंकरों के आदर्श का स्मरण करता हुआ आत्मा में एक आध्यात्मिक पूर्णता की भावना प्रकट करता है। वह विचार करता हैं - हे भगवन ! किसी जन्म में आप और मैं एक साथ खाते-पीते और खेलते थे। सुख - दुःख में एक दूसरे को साथ देते थे। अपने दोनों में घनिष्ट मित्रता थी। अपनी दोनों की आत्मा भी समान है। फिर भी आप कर्म रहित हो गये और मैं कर्म से जकडा हूँ, आप मोक्ष में बिराजित है और मैं अज्ञान दशा में पाप करता हुआ चारों गति में भटक रहा हूँ। इस तरह परमात्मा आपका अतीत और मेरा अतीत समान है, वर्तमान में अंतर हो गया है। __एक काल में एक स्थान पर अनेक केवली हो सकते हैं, पर तीर्थंकर एक ही होता है। प्रत्येक साधक प्रयत्न करने पर केवली बन सकता है किंतु स्वभाविक रुप से विशिष्ट योग्यता प्राप्त जीव ही तीर्थंकर नाम कर्म का बंध कर तीर्थंकर बन सकता है। तीर्थंकरत्व उत्कृष्ट पुण्य प्रकृति है। तीर्थंकरों के गुणों का उत्कीर्तन करने से हृदय पवित्र होता है, वासनाएँ शांत होती है। जैसे तीव्र ज्वर के समय चंदन का लेप लगाने से ज्वर शांत हो जाता है, उसी प्रकार जब जीवन में वासना का ज्वर बेचैनी पैदा करता हो, उस समय तीर्थंकरों का स्मरण चंदन के लेप की तरह शांति
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