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* वंदन साधना क्षेत्र में तीर्थंकर के पश्चात् दूसरा स्थान गुरु का है। तीर्थंकर देव है। देव के पश्चात् गुरु को नमन किया जाता है। साधक को अपनी साधना करने से पहले गुरु को वंदन कर उनकी आज्ञा लेना अनिवार्य होता है। क्योंकि साधक की साधना गुरु के मार्गदर्शन से होती है। अकेला साधक मूढ के तुफान में उलझ सकता है।
वंदन मन, वचन और काया का वह प्रशस्त व्यापार है जिसमें गुरु एवं विशिष्ट साधनारत साधकों के प्रति श्रद्धा और आदर प्रकट किया जाता है। इसमें उन व्यक्तियों को प्रणाम किया जाता है, जो वीतराग की आज्ञा में है, जो सद्गुणी है, जो योग्यता को प्राप्त है, जो साधना के पथ पर आगे बढे हुए हैं। ___ * सद्गुणी को नमस्कार :- यह सत्य है कि मानव का मस्तिष्क हर किसी के चरणों में नहीं झुक सकता और झुकना भी नहीं चाहिए। जो सद्गुणी है उन्हीं के चरणों में झुकना चाहिए। सद्गुणों को नमन करने का अर्थ है, सद्गुणों को अपनाना यदि साधक असंयमी पतित व्यक्ति को नमस्कार करता है, जिसके जीवन में दुराचार पनप रहा हो, वासनाएँ उभर रही हो। राग द्वेष की ज्वालाएँ धधक रही हो, जिनके खुद की आचार शिथिलता का मन में जरा भी दर्द न हो और जो मुक्त रुप से अनाचार का सेवन करते हुए समर्थन करते हो, उस व्यक्ति को नमन करने का अर्थ है उनके दुर्गुणों को प्रोत्साहन देना। आचार्य भद्रबाहुस्वामी ने आवश्यक नियुक्ति में बहुत ही स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि ऐसे गुणहीन व्यक्तियों को नमस्कार नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुणों से रहित व्यक्ति अवंदनीय होते हैं। अवंदनीय व्यक्तियों को नमस्कार करने से कर्मों की निर्जरा नहीं होती और न कीर्ति बढती है। असंयम और दुराचार का अनुमोदन करने से नये कर्म बंधते है। अतः उनको वंदन व्यर्थ है। मात्र काय -क्लेश है।
वंदन करनेवाला व्यक्ति विनय के द्वारा लोक आदेयता प्राप्त करता है। अपने अहंकार को नष्ट करता है। सद्गुरुओं के प्रति अनन्य श्रद्धा प्रकट होती है। तीर्थंकरों की आज्ञा पालन करने से शुद्धधर्म की आराधना होती है। भगवती सूत्र के अनुसार वंदन के फलस्वरुप गुरुजनों के सत्संग का लाभ होता है। सत्संग से शास्त्रश्रवण, शास्त्रश्रवण से ज्ञान, ज्ञान से विज्ञान, विज्ञान से फिर क्रमशः प्रत्याख्यान, संयम -अनाश्रव - तप, कर्मनाश, अक्रिय, एवं अंत में सिद्धि की उपलब्धि होती है।
वंदन के विषय में गौतमस्वामी ने भगवान महावीरस्वामी से प्रश्न किया कि भगवन ! वंदन करने से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है ? भगवन ने उत्तर दिया।
गौतम ! वंदन द्वारा आत्मा नीच गोत्र रुप बंधे हुए कर्म का क्षय करता है और उच्च गोत्र कर्म को बाँधता है तथा ऐसा सौभाग्य प्राप्त करता है कि उसकी आज्ञा निष्फल नहीं जाती है। सभी उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। साथ ही वंदना से लोगों को उचित कथन करने का सहज भाव प्राप्त होता है।
साधु जीवन में दीक्षा पर्याय के आधार पर वंदन किया जाता है। सभी पूर्व दीक्षित साधक वंदनीय होते हैं।
RIANRAIN-48
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