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1. सद्भाव स्थापना :- गुरु मूर्ति की स्थापना 2. असद्भाव स्थापना :- अर्थात् आकृति बिना कोई भी पवित्र पदार्थ जैसे डांडा, पाटी, पुस्तक आदि - स्थापना करके उसमें गुरु के गुणों का आरोपण करना।
* पुस्तकादि :- ऊपर कहे हुए उपकरणों के अलावा पुस्तक, ठवणी, माला इत्यादि जिन साधनों से सामायिक का काल सुख रुप से निकले, समता का लाभ मिले, ज्ञान
की वृद्धि हो, आत्मा निर्मल बने ये सब यथा आवश्यक उपकरण साथ में रखने चाहिए। सामायिक में आभूषण आदि धारण करके बैठना भी उचित नहीं माना गया है, क्योंकि सामायिक त्याग का क्षेत्र है। अतः उसमें त्याग का भाव होना आवश्यक है।
सामायिक के वस्त्र कटे - फटे, मैले एवं अशुद्ध न हो। वस्त्र श्वेत, मर्यादित, स्वच्छ, धोये हुए या नवीन होने चाहिए। क्योंकि बाह्य उज्जवलता से भावों की उज्जवलता पर प्रभाव पड़ता है। सर्दी आदि के मौसम में शक्ति अनुसार गर्म शाल का उपयोग कर सकते हैं। ऐसा उल्लेख आचार्य हरिभद्रसूरि तथा आचार्य अभयदेवसूरि आदि के ग्रन्थों में मिलता है।
द्रव्यशुद्धि की इसलिए आवश्यकता है कि द्रव्यशुद्धि से भावशुद्ध होते हैं। अच्छे बुरे पुद्गलों का मन पर असर होता है। अतः मन में अच्छे विचार एवं सात्विक भाव स्फुरित करने के लिए द्रव्यशुद्धि साधारण साधक के लिए भी आवश्यक है। __4. भाव विशुद्धि :- द्रव्यविशुद्धि, क्षेत्रविशुद्धि और कालविशुद्धि साधना के बहिरंग तत्व हैं और भावविशुद्धि आत्मा का अंतरंग तत्व है। भावविशुद्धि अर्थात् मन की विशुद्धि। मन की शुद्धि ही सामायिक की साधना का सर्वस्व सार है। जीवन को उन्नत बनाने के लिए मन, वचन और काया से होनेवाली दुष्प्रवृत्तियों को रोकना होगा। अंतरात्मा में मलिनता पैदा करनेवाले दोषों का त्याग करना होगा। आर्त और रौद्रध्यान से बचना होगा। तब ही व्यक्ति का चित्त सामायिक में एकाग्र बन सकता है। ये चारों प्रकार की विशुद्धि सामायिक के लिए आवश्यक है।
* सामायिक का महात्मय :- सामायिक मोक्षांग है। मोक्षांग कहने के कारण सामायिक का सबसे अधिक महात्मय बताया गया है। सामायिक की साधना के विषय में गौतमस्वामी ने भगवान महावीरस्वामी से प्रश्न किया कि
प्र. सामाइएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
उ. सामाइएणं सावज्जजोग विरइं जणयइ ।। भगवान ! सामायिक करने से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है ?
हे गौतम ! सामायिक द्वारा आत्मा सावद्ययोग की प्रवृत्ति से विरति होती है। सामायिक की साधना आत्मा को अशुभ वृत्ति से हटाकर शुभ में जोडती है और शुभ से शुद्ध की ओर ले जाती है।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने अष्टक प्रकरण में कहा है - सामायिक की विशुद्ध साधना से जीव घाती कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। एक आचार्यश्री ने तो लिखा है :
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