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________________ स्थानक, कल्याणक भूमि, विशिष्ट साधकों की साधना भूमि आदि जहां चित्त स्थिर रह सके और आत्मचिंतन किया जा सके उसे ही उचित स्थान कहा गया है। 3. द्रव्य विशुद्धि :- द्रव्य का तात्पर्य सामायिक में उपयोगी साधनों से है। द्रव्य सामायिक में निम्न उपकरणों की आवश्यकता होती है - चरवला, आसन, मुँहपत्ति, वस्त्र, स्थापनाचार्य, माला, पुस्तक आदि जो उपकरण सामायिक या संयम की अभिवृद्धि में सहायक हो, ऐसे न्याय उपार्जित, अल्पारम्भ, अहिंसक एवं उपयोगी उपकरण हो, जिसके द्वारा जीवों की भलीभांति यतना हो सके, ऐसे उपकरण का सामायिक में उपयोग करना चाहिए। * चरवला :- सामायिक आदि क्रिया में पूंजने प्रमार्जन के लिए श्रावक - श्राविकाएँ ऊन का जो गुच्छा रखते हैं, उसको चरवला कहते हैं। साधु - साध्वी भी जीवरक्षा के लिए या पूंजने प्रमार्जन के लिए ऐसा ऊन का मोटा गुच्छा रखते हैं उसे ओघा या रजोहरण कहते हैं। स्थानकवासी परंपरा में पूजने प्रमार्जन के लिए ऊन से बनी हुई पूंजनी रखते हैं। चरवले शब्द का अर्थ है चर + वलो = चरवलो। चर अर्थात् चलना, फिरना, उठना अथवा बैठना। वलो अर्थात् पूंजना, प्रमार्जना। सामायिक में पूंजना - प्रमार्जना करके चलना, फिरना, उठना, बैठना चाहिए। यह जयणा का उत्तम साधन है। चरवला 32 अंगुल का होता है, 24 अंगुल की डंडी तथा 8 अंगुल की ऊन की फलियाँ। *आसन :- आसन को कटासन भी कहते हैं। आसन लगभग एक हाथ लंबा और सवा हाथ चौडा होता है। यह सादा एवं ऊनी हो, जिससे जीवों की यतना सम्यक् प्रकार से हो सके। * मुहपत्ति या मुखवस्त्रिका :- मुख के आगे रखने का वस्त्र। मुख्य रुप से तो मुँहपत्ति हमें ऐसा पारमार्थिक बोध देती है कि सामायिक में सावध (हिंसा एवं पापजनक) वचन नहीं बोलने चाहिए। बोलते समय भाषा समिति का ध्यान रखना। वचन गुप्ति को धारण करना। उत्सूत्र, अहितकारी, असत्य, अप्रिय वचन न बोलना। दूसरे प्रकार के विचार करने से ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञानोपकरण के उपर थूक न पडने से विनय होता है। इस रुप में लगनेवाली आशातना का त्याग हो जाता है। मुहपत्ति का उपयोग विवेकपूर्वक करने में आये तो मक्खी, मच्छर आदि त्रस एवं वायुकाय के जीवों के संरक्षण का लाभ भी प्राप्त होता है। * स्थापनाचार्य :- मंदिरमार्गी परंपरा में सामायिक करते समय गुरु रुप में स्थापनाचार्य की स्थापना की जाती है। स्थापनाचार्य की साक्षी से धर्मक्रिया विशेष दृढ होती है। स्थापना दो प्रकार की होती है। AAAA . AA . Jain Education International 43 For Persona Pavale Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004053
Book TitleJain Dharm Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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