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________________ समभाव रखकर “करेमि भंते" की प्रतिज्ञा लेकर और आधि-व्याधियों को भूलकर की जानेवाली सामायिक ही श्रेष्ठ उत्तम फल देनेवाली है। करेमि भंते की प्रतिज्ञा सक्ख्य हो वहाँ तक गुरु से अथवा अन्य कोई सामायिक में हो उनके पास लेनी चाहिए। व्याख्यान आदि क्रिया में स्वयं ही करेमि भंते की प्रतिज्ञा ले लेवें । जितने समय तक सामायिक की जावे उतने समय तक संसार का त्याग किया जाता है। सामायिक में रहा हुआ श्रावक गृहस्थ होते हुए भी साधु तुल्य होता है। इसीलिए परमात्मा ने मानव को बार - बार सामायिक करने को कहा है। देवता सामायिक नहीं कर सकते, तिर्यंचों को भी यह दुर्लभ है, नारकियों के भाग्य में सामायिक है ही कहाँ ? केवल मनुष्य के भाग्य में ही प्रधानतः सामायिक है। सामायिक की साधना के लिए चार विशुद्धियों का उल्लेख किया जा रहा है : 1. काल विशुद्धि 2. क्षेत्र विशुद्धि 3. द्रव्य विशुद्धि और 4. भाव विशुद्धि 1. काल विशुद्धि :- साधु यावज्जीवन सामायिक में ही रहते है। गृहस्थ को सामायिक के लिए योग्यकाल का निर्णय करना काल विशुद्धि है। सामायिक की साधना के लिए गृहस्थ के हेतु सभी काल उचित नहीं कहे जाते। सर्वप्रथम शारीरिक दृष्टि से मलमूत्र आदि के आवेगों के होते हुए सामायिक करना उचित नहीं माना जाता है। भूख, प्यास आदि से अति व्याकुल स्थिति में भी सामायिक की साधना सम्भव नहीं होती। सामायिक के लिए वही काल उचित हो सकता है, जब व्यक्ति शारीरिक और मानसिक आवेगों तथा पारिवारिक और व्यावसायिक दायित्वों से मुक्त होकर सामायिक की साधना करें, व्यक्ति को उचित और अनुचित समय का विचार करना भी आवश्यक है। गोचरी वोहराने के काल में तथा जिन पूजा करने इत्यादि समय में भी सामायिक करना उचित नहीं है। यदि परिवार में कोई सदस्य बीमार हो और उसकी सेवा अपेक्षित हो, उस समय यदि सेवा को छोडकर सामायिक करने बैठते है तो यह भी उचित नहीं कहा जा सकता। दशवैकालिक सूत्र में भी कहा गया है - काले कालं समायरे अर्थात् जिस कार्य को जिस समय करना हो, उसी समय वह कार्य करना उचित होता है। भगवान महावीर स्वामी ने साधुओं के लिए भी कहा है कि यदि बीमार साधु की सेवा शुश्रूषा को छोडकर दूसरे साधु अन्य कार्य में व्यस्त रहे, तो प्रायश्चित आता है। बीमारी में पूर्ण रुप से सार सम्भाल करना आवश्यक है। इस प्रकार सामायिक के लिए योग्यकाल का निर्णय करना ही कालविशुद्धि है। ___ 2. क्षेत्र विशुद्धि :- क्षेत्र से मतलब उस स्थान से है, जहां साधक सामायिक करने के लिए बैठता है। वह स्थान योग्य हो पूर्णतः शुद्ध पवित्र हो। जिस स्थान पर बैठने से चित्त में विकृत भाव उठते हो, चित्त चंचल बनता हो और जिस स्थान पर स्त्री, पुरुष या पशु आदि का आवागमन अधिक होता हो, विषय विकार उत्पन्न करनेवाले शब्द कान में पडते हो, इधर - उधर दृष्टि करने से मन विचलित होता हो अथवा क्लेश उत्पन्न होने की सम्भावना हो ऐसे स्थानों पर बैठकर सामायिक करना उचित नहीं है। इस प्रकार उपासकदशांग सूत्र में इसका समर्थन किया गया है कि धर्माराधना के लिए एकान्त कमरा, पौषधशाला, उपासना कक्ष, उपाश्रय, AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAI Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004053
Book TitleJain Dharm Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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