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सकल कर्मक्षय
9. मोक्ष
2009
मोक्ष तत्व
नवतत्वों में मोक्ष तत्व अंतिम व अत्यंत महत्वपूर्ण तत्व है। वह जीवमात्र का चरम और परम लक्ष्य है। जिसने समस्त कर्मों का क्षय करके अपने साध्य को सिद्ध कर लिया, उसने पूर्ण सफलता प्राप्त कर ली। कर्म बंधन से मुक्ति मिली कि जन्म मरण रुप महान् दुःखों के चक्र की गति रुक गई। सदा सर्वदा के लिए सत् - चित्त् आनंदमय स्वरुप की प्राप्ति हो गई।
* मोक्ष की परिभाषा :
तत्वार्थ सूत्र में मोक्ष की परिभाषा देते हुए
कहा है :- “कृत्सन कर्मक्षयो मोक्षः "
संपूर्ण कर्मों का क्षय ही मोक्ष है। अर्थात् आत्मा और कर्म का अलग अलग हो जाना मोक्ष है। संपूर्ण कर्मों का क्षय उसी दशा में हो सकता है, जब नवीन कर्मों का बंध सर्वथा रोक दिया जाए और पूर्वबद्ध कर्मों की पूरी तरह निर्जरा कर दी जाय। जब तक नवीन कर्म
आते रहेंगे, तब तक कर्म का आत्यन्तिक क्षय संभव नहीं हो सकता। इसलिए कहा है।
“बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम्"
बंध के हेतुओं के अभाव से और निर्जरा से संपूर्ण कर्मों का क्षय संभव मिथ्यात्व आदि बंधहेतुओं का अभाव संवर द्वारा होने से नवीन कर्म नहीं बंधते और पहले बंधे हुए कर्मों का अभाव निर्जरा से होता है। इस प्रकार संवर और निर्जरा मोक्ष के दो कारण है।
कर्मक्षय की श्रृंखला में सर्वप्रथम मोहनीय कर्म क्षीण होते हैं और उसे क्षीण होने के अंतर्मुहूर्त में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय । इन तीन कर्मों का भी क्षय हो जाता है। इस प्रकार चार घाती कर्मों का क्षय होने पर केवलज्ञान, केवलदर्शन प्रकट होता है और आत्मा सर्वज्ञ सर्वदर्शी बन जाती है।
मोहनीय आदि चार घातिकर्मों का आत्यन्तिक क्षय हो जाने से वीतरागता और सर्वज्ञता प्रकट होती है। फिर भी वेदनीय आदि चार अघातिकर्म शेष रहते हैं जिनके कारण मोक्ष नहीं होता है। इन अघातिकर्मों का भी जब क्षय होता है तभी मोक्ष होता है और उस स्थिति में जन्म मरण का चक्र समाप्त हो जाता है।
दूसरे शब्दों में मोक्ष का अर्थ है मोह का क्षय, राग और द्वेष का पूर्ण क्षय, आत्मा का अपने शुद्ध स्वरुप मे चिरकाल तक स्थिर रहना यही मोक्ष है। कर्म से मुक्त होने पर आत्मा एक समय में लोकाग्र भाग पर स्थित हो जाती है। इस लोकाग्र को व्यवहार भाषा में सिद्धशिला (सिद्ध के रहने का स्थान) कहते हैं।
प्रश्न हो सकता है मुक्तात्मा लोक के अग्रभाग में जाकर क्यों स्थिर हो जाती है आगे क्यों नहीं जाती ? धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्य लोकाकाश में ही है, उससे आगे अलोकाकाश में नहीं है। धर्मास्तिकाय द्रव्य गति में और अधर्मास्तिकाय जीव की स्थिति में सहायक होता है। अलोकाकाश में ये दोनों द्रव्य न होने से मुक्तात्माओं का न गमन होता है और न ही स्थिति होती है। अतः उनका गमन लोकांत तक ही होता है। * मोक्ष का स्वरुप :- सर्वार्थसिद्ध विमान से बारह योजन ऊपर 45 लाख योजन की चौडी, गोलाकार व छत्राकार सिद्धशिला है। वह मध्य में 8 योजन मोटी और चारों ओर से क्रमशः घटती घटती किनारे पर मक्खी के पंख से भी अधिक पतली होती है। वह पृथ्वी श्वेत स्वर्णमयी है, स्वभावतः निर्मल है और उल्टे रखे छाते हुए
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