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________________ IV. स्वाध्याय :- अस्वाध्याय काल को टाल कर सत् शास्त्रों स्वाध्याय को मर्यादापूर्वक पढना, विधि सहित अध्ययन करना स्वाध्याय हैं। दूसरा अर्थ है शास्त्रवाक्यों के आलम्बन से स्वयं का अध्ययन करना, अपना अपने ही भीतर अध्ययन अर्थात् आत्मचिंतन-मनन करना स्वाध्याय हैं। जैसे शरीर के विकास के लिए व्यायाम और भोजन की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार आत्मिक विकास के लिए स्वाध्याय की आवश्यकता होती है। इस कारण शास्त्र कहते है “सज्झायम्मि रओ सया" अर्थात् साधक को सदा स्वाध्याय में रत रहना चाहिए। उससे नया विचार, नया चिंतन जागृत होता है / पढे हुए ज्ञान की स्थिरता होती है व नूतन ज्ञान प्राप्त होता हैं। यह ध्यान रहे कि हर किसी प्रकार के शास्त्र, ग्रंथ या पुस्तकों का अध्ययन स्वाध्याय की कोटि में नहीं आता। जैसे गलत तरीके से किया गया व्यायाम शरीर के लिए हानिप्रद है। अपथ्य भोजन शरीर में रोग पैदा करता है, उसी प्रकार जिनाज्ञा निरपेक्ष उन्मार्ग पोषक विकारवर्धक एवं हिंसाप्रेरक आदि साहित्य, ग्रंथ या पुस्तकों पठन भी लाभप्रद नहीं अपितु हानिकर है। संवर, निर्जरा के बजाय पाप बंधक बन जाता हैं। अतः पढते समय विवेक की आवश्यकता है। कम पढो, संदर पढो जिससे सदविचार जागत हो। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है स्वाध्याय से समस्त दुखों से मुक्ति मिलती है। जन्म-जन्मान्तरों के संचित कर्म इससे क्षीण हो जाते हैं। इस दृष्टि से स्वाध्याय अपने आप में बहुत बड़ी तपस्या हैं। इसमें आत्म-ध्यान और शुभ-भावों की अनिवार्यता है। जो विद्वान है और शास्त्रों का अक्षराभ्यास कर चुके है किंतु आत्म-ध्यान से रहित है तो उनका शास्त्राध्ययन आत्मकल्याण का कारण न बनकर पुण्य का कारण मात्र रह जाता है। स्वाध्याय के पांच भेद है - ___ 1. वाचना :- गुरु मुख से विधिपूर्वक जिन वचनों का ग्रहण करना, सूत्र और अर्थ को शुद्धतापूर्वक पढना, योग्य साधकों को पढाना और जो नहीं पढ़ सकते हो उन्हें सुनाना। 2. पृच्छना :- पढने या वाचना लेने के पश्चात् किसी विषय में शंका हो तो जिज्ञासा एवं विनयपूर्वक गुरु के पास या उस विषय के जानकार से शंका का समाधान करना। 3. परावर्तना :- सीखे हुए या पढे हुए सूत्र अर्थ रुप ज्ञान को भूल न जाए इसलिए उसे बार-बार दोहराना या उसकी पुनरावृत्ति करना। 4. अनुप्रेक्षा :- सीखे हुए ज्ञान को बार-बार चिंतन, मनन करके उनके रहस्यों को हृदयगम करना। 128 Jain Education International For Personal & Private Use Only www lainelibrary.org
SR No.004053
Book TitleJain Dharm Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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