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AIICE
ध्यान
5. धर्मकथा :- पढा हुआ या चिंतन मनन किया हुआ श्रुतज्ञान जब लोक-कल्याण की भावना से श्रोताओं को सुनाया जाता है, तब वह धर्म कथा कहलाता हैं।
v. ध्यान :ध्यान का अर्थ है - एकाग्रचित्त होना। मन को, एक विषय पर एकाग्र करना अर्थात् केन्द्रित करना ध्यान है, इसके चार भेद हैं। __ 1. आर्तध्यान :- दुख के निमित या दुख में होने वाला ध्यान आर्तध्यान है, दुख व्याधि और तनाव के कारण से व्याकुलता चिंता,
शोक आदि के विचार बार-बार उठते हैं और मन उसमें डूबा रहता है, वह आर्तध्यान कहलाता है।
2. रौद्रध्यान :- हिंसा, झूठ, चोरी संबंधी तथा धन आदि की रक्षा में मन को जोड़ना रौद्रध्यान है। 3. धर्मध्यान :- तत्वों और श्रुत-चारित्र रूप धर्म के पवित्र चिंतन में मन को स्थिर करना धर्मध्यान
4. शुक्ल ध्यान :- जो ध्यान आठ प्रकार के कर्म मैल को दूर करता है वह शुक्ल ध्यान है। पर आलम्बन के बिना शुक्ल अर्थात् निर्मल आत्म स्वरूप का तन्मयतापूर्वक चिंतन करना शुक्ल ध्यान है। बाहृय विषयों से संबंध होने पर भी मन उनकी ओर आकर्षित नहीं होता। पूर्ण वैराग्य अवस्था में रमण करता है। भयंकर वेदना होने पर भी शुक्ल ध्यानी उस वेदना को तनिक भी महसूस
कायोत्सर्ग नहीं करता। वह देहातीत हो जाता है।
VI. व्युत्सर्ग :-व्युत्सर्ग का अर्थ है - त्याग करना या छोड देना। बाह्य और अभ्यंतर उपधि का त्याग करना व्युत्सर्ग नामक छठा आभ्यंतर तप हैं।
1. धन-धान्य आदि बाह्य पदार्थों की ममता का त्याग करना बाहृयोपधि व्युत्सर्ग है।
2. शरीर की ममता का त्याग एवं काषायिक विकारों का त्याग करना आभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग है। इस प्रकार जो साधक ममता के बंधनों को तोड़ते है वे व्युत्सर्ग तप की सच्ची आराधना करते हैं।
उक्त रीति से छह बाह्य और छह आभ्यंतर तप के आराधन से कर्मों की महान निर्जरा होती हैं। निर्जरा के प्रति तप असाधारण कारण है, इसलिए तप के बारह भेदों को ही निर्जरा के बारह भेद के रूप में गिनाये हैं।
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