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________________ OOOO oamou v. काय - क्लेश :- धर्म आराधना के लिए कायक्लेश स्वेच्छापूर्वक काया को कष्ट देना या कायिक कष्ट को समता भाव से सहन करना कायक्लेश तप है। इस तप में विविध आतापना, केश - लोचन तथा उग्र विहार आदि का समावेश किया गया है। परंतु ध्यान रखना है केवल काया को कष्ट देना ही कायक्लेश तप नहीं है, किंतु ज्ञान व विवेकपूर्वक आत्मशुद्धि व इन्द्रिय विजय की भावना रखते हुए शारीरिक वेदना, उपसर्ग, परीषह, आदि को समभाव पूर्वक सहन करना कायक्लेश तप है। VI. संलीनता (विविक्त शय्यासन) :- शरीर, इन्द्रिय और मन को संलीनता संयम में रखना, काया का संकोच करना, स्त्री, पशु, नपुंसक रहित एकांत, शांत और पवित्र स्थान में रहना, विषयों का गोपन (रक्षण) करना तथा कषायों को रोकना संलीनता तप है। इन छः प्रकार के बाह्य तपों से आसक्ति त्याग, शरीर का लाधव, इन्द्रिय विजय से संयम की रक्षा और कर्मों की निर्जरा होती है। ये बाह्य तप अभ्यंतर तप के पोषण हेतु किये जाते हैं। * छः प्रकार के अभ्यंतर तप:। प्रायश्चित :- प्रायश्चित में दो शब्दों का योग है, प्राय प्रायश्चित्त और चित्त, प्राय का अर्थ है पाप और चित्त का अर्थ है विशोधन करना अर्थात् पाप को शुद्ध करने की क्रिया का नाम ही प्रायश्चित है। प्राकृत भाषा में प्रायश्चित का पायच्छित्त कहा है। पाय | अर्थात् पाप और छित्त अर्थात् छेदन करना। जो क्रिया पाप का छेदन करती है, पाप को दूर करती है, उसे पायछित्त कहते हैं। किये हए पापों को पश्चाताप पर्वक गरु के समक्ष निवेदन करना और पापशुद्धि के लिए गुरु महाराज द्वारा दिया हुआ प्रायश्चित्त तप करना। प्रायश्चित्त 10 प्रकार का है। 1. आलोचना :- गुरु के समक्ष अपने दोषों (2) प्रतिक्रमण को निष्कपट भाव से व्यक्त करना आलोचना है। 2. प्रतिक्रमण :- दोष या भूल के लिए हृदय में खेद करना और भविष्य में भूल न करने का संकल्प करके पूर्व में हुई भूल के लिए मिच्छामि दुक्कडं देना, मेरा वह पाप मिथ्या हो, ऐसा भाव पूर्वक कहना प्रतिक्रमण है। 24 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004053
Book TitleJain Dharm Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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