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II. ऊनोदरी या अवमौदर्य :- इस तप का अर्थ है भूख से कम
ऊणोदरी खाना। उन यानी कम, ओदरी यानी उदरपूर्ति। जितनी भूख हो उससे कुछ कम आहार करना। जैसे चार रोटी की भूख होने पर भी तीन रोटी में संतोष करना ऊनोदरी तप है। आहार के समान कषाय, वस्त्र, योग की चंचलता आदि की भी ऊनोदरी होती है। इसलिए इस तप के दो भेद हैं, 1. द्रव्य ऊनोदरी 2. भाव ऊनोदरी
1. द्रव्य ऊनोदरी :- वस्त्र, पात्र आदि उपकरण कम करना और आहार की मात्रा घटाना द्रव्य ऊनोदरी है।
2. भाव ऊनोदरी :- क्रोध, मान, माया, लोभ, कलह आदि भावों का तथा शब्दों का प्रयोग भी कम करना भाव ऊनोदरी है।
द्रव्य ऊनोदरी में साधक जीवन को बाहर से हलका, स्वस्थ व प्रसन्न रखने का मार्ग बताया गया है और भाव ऊनोदरी में अन्तरंग प्रसन्नता, आंतरिक लघुता और सद्गुणों के विकास का पथ प्रशस्त किया गया
है।
- III. वृत्ति संक्षेप :- विविध वस्तुओं की लालसा को कम करना या वृतिसंक्षेप
भोगाकांक्षा पर अंकश लगाना वत्ति संक्षेप तप है। वत्ति का अर्थ भिक्षाचारी या भिक्षावृत्ति भी है। साधु भिक्षावृत्ति के लिए विविध प्रकार की मर्यादाओं को स्वीकार करता है जैसे दो या तीन घरो से ही भिक्षा ग्रहण करुंगा अर्थात् एक या दो बार में पात्र में जो आहार आयेगा उसी से संतुष्ट रहुंगा, या अमुक मुहल्ले में ही गोचरी के लिए जाऊंगा आदि भिक्षा वृत्ति या वृत्ति संक्षेप तप है। किंतु श्रावक भिक्षा से भोजन प्राप्त नहीं करता। वह भोजन में खाये जानेवाले द्रव्यों का संकोच करता है, यानि वह निश्चय करता है कि इतने द्रव्य से अधिक नहीं खाउंगा या
अमुख अमुख पदार्थ नहीं खाऊंगा, यह वृत्ति संक्षेप हैं। श्रावक के 14 नियम का चिंतन इस तप के अंतर्गत में आ जाते हैं।
IV. रस परित्याग :- आहार का त्याग करना ही तप नहीं है। अपितु खाते पीते भी तप हो सकता है। इस तप का उद्देश्य स्वादवृत्ति पर विजय पाना है। जीभ को स्वादिष्ट लगने वाले, मन को विकृत करनेवाले
और इन्द्रियों को उत्तेजित करनेवाले खाद्य पदार्थों का त्याग करना रस परित्याग तप है।
इसमें मुख्यतः घी, तेल, दूध, दही, शक्कर या गुड और कढाई (घी, तेल में तली हुई चीजें) इस छः विगई का यथाशक्य त्याग करना तथा मांस, मदिरा, शहद और मक्खन इन चार महाविगई का सर्वथा त्याग करना होता है।
रसत्याग
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