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________________ कोई भयंकर व्याधि हो जाए तो बाह्य या अभ्यंतर तप में आगे बढ़ने का निषेध है। अतः कहा भी है तपस्या तभी तक करनी चाहिए, जब तक मन में दुर्ध्यान न हो। तपस्या करने वाले साधक को अपनी शक्ति को नापकर ही तपस्या करनी चाहिए। “दशवैकालिक सूत्र" में कहा है - "बल, क्षमता, श्रद्धा, आरोग्य, क्षेत्र और काल (समय या परिस्थिति) देखकर ही स्वयं को किसी साधना में लगाना चाहिए।'' जहां इसका विचार किये बिना देख - देखी दूसरों के कहने से अविवेकपूर्वक तप किया जाता है, वहां आर्तध्यान हो जाए वह तप बाल तप बन जाता है। भ. महावीरस्वामी ने प्रत्येक साधना के साथ दो बातों का निर्देश दिया है। "अहासुहं" और "मा पडिबंधं करेह" अर्थात् जिस प्रकार से सुख समाधि हो वह साधना स्वीकार करो परंतु साधना के लिए तुम्हारे मन में उत्साह हो, प्रबल मनोबल हो और शरीर में समाधि हो तो उस साधना को करने में विलम्ब या शिथिलता हर्गिज मत करो। तप के मुख्य दो भेद है :- 1. बाह्य तप और 2. अभ्यंतर तप। 1. बाह्य तप :- जिस तप में शारीरिक क्रिया की प्रधानता होती है तथा जो भोजन आदि बाह्य द्रव्यों के त्याग के आलंबन से होता है और दूसरों को तप के रुप में दिखाई देता है, वह बाह्य तप है। 2. अभ्यंतर तप :- जिस तप में मानसिक साधना की प्रधानता होती है और जो मुख्य रुप से बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा न रखने के कारण दूसरों को दिखाई न देता है, आत्मा की आंतरिक शुद्धि करनेवाला तप अभ्यंतर तप है। बाह्य तप के छः प्रकार है : 1. अनशन :- मर्यादित समय के लिए या आजीवन के लिए चार या तीन प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन कहलाता है। जैसे अशन यानी अन्नादि खाद्यपदार्थ, पान अर्थात् जल आदि पेय पदार्थ, खादिम यानी मेवा आदि और स्वादिम का अर्थ है मुख को सुवासित करनेवाले सुपारी, इलायची, सौंफ, चूर्ण आदि ये चारों प्रकार के पदार्थ यहां अशन शब्द से ग्राह्य है। __ अनशन तप तब कहलाता है जब शरीर तपाने के साथ साथ आत्मशुद्धि का भी लक्ष्य हो, अपच आदि की दशा में भोजन त्याग अनशन तो है परंतु अनशन तप नहीं है। वह लंघन है। अनशन तप के मुख्य दो भेद हैं:- 1. इत्वरिक अनशन और 2. यावत्कथिक अनशन 1. इत्वारिक अनशन :- थोडे समय के लिए आहारादि का त्याग करना जैसे नवकारसी से लेकर छःमासी तप करना। 2. यावत्कथिक अनशन :- आजीवन चारों प्रकार के आहार और शरीर शुश्रुषा का त्याग करना। साधारण भाषा में इसे संथारा भी कहते हैं। अनशन ABORAN220 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.004053
Book TitleJain Dharm Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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