SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होती है वह अकाम निर्जरा है। 2. सकाम निर्जरा :- जो निर्जरा आत्म शुद्धि के लक्ष्य से अर्थात् मोक्ष लक्षी बनकर किये जानेवाले तप से तथा कष्टों को समभाव के साथ सहन करने से होती है वह सकाम निर्जरा है। सकाम निर्जरा कर्म फल भोगने की प्रशस्त कला है। पूर्व बद्ध शुभाशुभ कर्मों के उदय में आने पर सुख या दुख को • समभावपूर्वक भोगने से सकाम निर्जरा का परम लाभ मिलता है। आगमों में तप को निर्जरा का साधन माना है। कहा जाता है “भवकोडी संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जई” करोडों जन्मो के उपार्जित कर्म तप के द्वारा क्षीण हो जाते हैं। शारीरिक, मानसिक, आत्मिक समाधि एवं दुश्चिंताओं से उपर उठने का एक मात्र उपाय तप साधना है। अर्थात् इच्छा निरोध पूर्वक ज्ञान-बल से दुःखों को सहना और उन पर विजय प्राप्त करना तप है। - संसार में कई प्राणी आत्म शुद्धि के लक्ष्य को भूलकर केवल शारीरिक कष्ट सहन करने का मार्ग अपनाते हैं। कोई पंचाग्नि तप करते है, कोई कांटों पर सोते है, कोई अग्नि पर चलते है, कोई मास • मास तक का उपवास करके पारणे में कुष मात्र खाते है, लेकिन यह सब अज्ञान तप है। ऐसे तप से कोई आत्मिक लाभ नहीं होता क्योंकि ऐसे तप का उद्देश्य ही गलत है। जिसका उद्देश्य ही अशुद्ध है तो कार्य कैसे शुद्ध हो सकता है। सांसारिक वासनाओं से या यश की लालसा से किया हुआ तप बाल तप की कोटि में है। ऐसे तप से आत्म शुद्धि नहीं होती है। आत्म शुद्धि के उद्देश्य से किया गया तप ही सकाम कर्मों की निर्जरा का कारण होता है। Vijaya Jain Education International कहा जाता है - इस लोक में भौतिक सुखों की लालसा से तप न करें, परलोक में भौतिक सुखों की इच्छा से तप न करें, यश कीर्ति, पूजा महिमा के लिए तप न करें, मान कषाय से प्रेरित होकर तप न करें, केवल निर्जरा के हेतु ही तप की आराधना करें। तप का अर्थ केवल शरीर का दमन ही नहीं है, अपितु आत्म दमन भी है। कषायादि वासनाओं से वासित चित्त की प्रवृत्ति का निरोध करना आत्म दमन है। जो साधक अपनी इच्छाओं को वश में करते हैं वे तपस्वी पद के सच्चे अधिकारी है। तत्वार्थ सूत्र में कहा गया है- “इच्छानिरोधस्तपः, इच्छाओं को रोकना तप है" जिसने अपनी इच्छाओं को जितने अंश में कम की है वह उतने ही अंश में तप का आराधक है। जैनागमों में यद्यपि दीर्घ बाह्य तप का विधान है तथा अनेक ऐसे तपस्वियों के उदाहरण भी मिलते हैं जिन्होंने एक मास से लेकर छः मास तक अनशन किया है तथापि मन में असमाधि उत्पन्न हो जाय या तन में - 21 For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org.
SR No.004053
Book TitleJain Dharm Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy