SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रभाव से स्मृति का ह्रास हो रहा है और स्मृति का ह्रास होने से श्रुत का हास हो रहा है, तब जैनाचार्यों ने एकत्रित होकर जैन श्रुत को व्यवस्थित किया। इस प्रकार श्रुत को व्यवस्थित करने के लिए पाँच आगम वाचनाएं हुई। * प्रथम वाचना : प्रथम वाचना भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण से करीब 160 वर्ष बाद पाटलीपुत्र में हुई। उस समय श्रमण संघ का प्रमुख विहार क्षेत्र मगध था, जिसे हम आज बिहार प्रदेश के नाम से जानते है। मगध राज्य में बारह वर्षों तक लगातार दुष्काल पडा। जिसमें अनेक श्रुतधर मुनि दिवंगत (कालधर्म) हो गये, स्वाध्याय आदि न हो सकने के कारण अनेक की स्मृति क्षीण हो गई। अनेक मुनि विहार करके अन्यत्र चले गये। फलतः श्रुत की धारा छिन्न भिन्न होने लगी। अकाल की समाप्ति पर वे मुनिगण वापस लौटे तो उन्होंने यह पाया कि उनका आगम ज्ञान अशंत, विस्मृत एवं विश्रृंखलित हो गया है और कहीं कहीं पाठ भेद हो गया है। अतः उस युग के प्रमुख आचार्य पाटलीपुत्र में एकत्रित हुए और आचार्य स्थूलिभद्र के नेतृत्व में यह वाचना संपन्न हुई। उनके निर्देशन में श्रुतधर श्रमणों ने मिलकर ग्यारह अंगों का संकलन किया तथा उसे व्यवस्थित किया। क्योंकि बारहवाँ अंग दृष्टिवाद और पूर्व साहित्य के कोई विशिष्ट ज्ञाता वहाँ उपस्थित नहीं थे। बारहवाँ अंग दृष्टिवाद के ज्ञाता एक मात्र आचार्य भद्रबाहु स्वामी बचे थे। वे नेपाल में महाप्राण ध्यान की साधना में संलग्न थे। अतः संघ ने आचार्य स्थूलिभद्रजी को अनेक साधुओं के साथ दृष्टिवाद की वाचना लेने के लिए आचार्य भद्रबाहुस्वामी के पास भेजा। आचार्य भद्रबाहुस्वामी ने वाचना देना प्रारंभ किया । दृष्टिवाद का एक विभाग है - पूर्वगत। उसमें चौदह पूर्व होते हैं। उनका परिमाण बहुत विशाल तथा ज्ञान अत्यंत कठिन होता है। बौद्धिक क्षमता एवं धारणाशक्ति की न्यूनता के कारण सब मुनियों का साहस टूट गया। आचार्य स्थूलभद्रजी के अतिरिक्त कोई भी मुनि अध्ययन के लिए नहीं टिक सकें। आचार्य स्थूलिभद्रजी ने अपने अध्ययन का क्रम चालू रखा। दस पूर्वों का सूत्रात्मक तथा अर्थात्मक ज्ञान हो चुका था। अध्ययन चल ही रहा था। इस बीच एक घटना घटी। उनकी बहनें जो साध्वियाँ थी, श्रमण भाई की श्रुताराधना देखने के लिए आई। बहनों को चमत्कार दिखाने हेतु विद्या-बल से उन्होंने सिंह का रुप बना लिया। बहनें सिंह को देख भय से ठिठक गई। यह देख आचार्य स्थूलिभद्रजी असली रुप में आ गये। आचार्य भद्रबाहुस्वामी विद्या के द्वारा बाह्य चमत्कार दिखाने के पक्ष में नही थे, उन्हें जब यह ज्ञात हुआ कि बहनों को चमत्कार दिखाने के लिए आचार्य स्थूलभद्रजी ने शक्ति का प्रदर्शन किया है तो वे उन पर रुष्ट हो गये और प्रमाद के प्रायश्चित स्वरुप वाचना देना बंद कर दिया। आचार्य स्थूलिभद्रजी ने क्षमा मांगी। तत्पश्चात् संघ एवं आचार्य स्थूलभद्रजी के अत्यधिक अनुनय विनय करने पर एवं भावी काल के जीवों की अयोग्यता की परख कर आचार्य भद्रबाहुस्वामी ने मूल रुप से अंतिम चार पूर्वों की वाचना दी, अर्थ की दृष्टि से नहीं । अतः सूत्र की दृष्टि आचार्य स्थूलभद्रजी चौदहपूर्वी हुए, किंतु अर्थ की दृष्टि से दसपूर्वी ही रहे । अर्थ की दृष्टि से आचार्य भद्रबाहुस्वामी के बाद चार पूर्वों का विच्छेद हो गया। इस प्रकार प्रथम वाचना पाटलीपुत्र में संपन्न हुई। Jain Education International 16 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004053
Book TitleJain Dharm Darshan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy